- आत्मज्ञानं परं ज्ञानम्। [1]
आत्मज्ञान परम ज्ञान है।
- आत्मनस्तु क्रियोपायो नान्यत्रेन्द्रियनिग्रहात्। [2]
इन्द्रियों पर नियंत्रण से दूसरा आत्मा के ज्ञान का कोई उपाय नहीं है।
- आत्मा सर्वस्य भाजनम्। [3]
आत्मा (शरीर) को ही सब सुख या दु:ख मिलते हैं।
- आत्मा ह्येक: सुखदु:खस्य भोक्ता। [4]
आत्मा (मनुष्य) अकेला ही सुख-दु:ख का भोग करतन है।
- अदृष्टपूर्वश्चक्षुर्भ्यां न चासौ तावता। [5]
आँखों से नहीं देखा गया इतने से नहीं कह सकते कि आत्मा है ही नहीं
- सर्वा ह्यात्मनि देवता:। [6]
आत्मा में सब देवता रहते हैं।
- न चात्मा शक्यते द्रष्टुमिन्द्रियै: कामगोचरै:। [7]
विषयों में आसक्त इंद्रियों के द्वारा आत्मा का दर्शन नहीं हो सकता।
- यदा तु बुध्यतेऽऽत्मानं तदा भवति केवल:। [8]
ऋजु यदि आत्मा को जान लेता है तो मुक्त हो जाता है।
- बुद्धिप्रदीपेन शक्य आत्मा निरीक्षितुम्। [9]
बुद्धिरूपी दीपक के द्वारा आत्मा का साक्षात्कार किया जा सकता है।
- कथं नाम भवेद् द्वेष्य आत्मा लोकस्य कस्यचित्। [10]
कोई भी व्यक्ति अपने आप से कैसे द्वेष कर सकता है।
- आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:। [11]
आत्मा स्वयं ही अपना बंधु है और अपना शत्रु भी स्वयं ही है।
- बुद्धिरैश्वर्यमाचष्टे क्षेत्रज्ञश्य च उच्यते।[12]
बुद्धि जिसके ऐश्वर्य को बताती है वह आत्मा ही है।
- न ह्यामा शक्यते हन्तुं दृष्टान्तोपगतो ह्यसौ। [13]
अपने आप को कोई छिपा नहीं सकता, अपने आप पता चल जाता है।
- न ह्यात्मन: प्रियतरं किंचिदस्तीह निश्चितम्। [14]
यह निश्चित है कि संसार में अपने आत्मा से अधिक प्रिय कुछ नहीं हैं।
- सर्वेष्वेवर्षिधर्मेषु ज्ञेयोऽऽत्मा संयतेन्द्रियै:। [15]
सभी ऋषिधर्मों में इन्द्रियसंयम के द्वारा आत्मा को जानने योग्य कहा है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 213.30
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 69.17
- ↑ शल्यपर्व महाभारत 4.42
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 139.30
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 203.7
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 216.15
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 248.14
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 306.44
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 326.39
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 346.7
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 6.27
- ↑ आश्रमवासिकपर्व महाभारत 51.2
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 49.17
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 116.16
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 141.108
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज