- सुबद्धस्यापि भारस्य पूर्वबन्ध: श्र्लथायते।[1]
भार दूसरी बार बाँधें तो पहला बंधन दृढ हो तो भी ढीला हो जाता है।
- आयत्यां च तदात्वे च य: पश्यति।[2]
जो वर्तमान और भविष्य दोनों को देखता है वही समुचित देखता है
- शीतोष्णयोर्मध्ये भवेन्नोष्णं न शीतता।[3]
शीत और उष्ण के मध्य में एक बिंदु है जहाँ न शीत होता है न उष्ण
- कामकार: सखीनां हि सोपहासं प्रभाषितम्।[4]
सखियों में आपस मे हास-परिहास की बातें हो ही जाया करती हैं।
- सम्प्राप्तं बहु मंतव्यम्।[5]
जो मिल जाये उसे बहुत मानना चाहिये।
- न त्वेय मंये पुरुषस्य राजन्ननागतं ज्ञायते यद् भविष्यम्।[6]
राजन्! लगता नहीं कि मनुष्य का भविष्य पहले ही जाना जा सकता है।
- यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग् भवति पुरुष:।[7]
मनुष्य जैसा होना चाहता है वैसा ही हो जाता है।
- यत् किंचिन्मन्यसेऽस्तीति सर्वं नास्ति विद्धि तत्।[8]
जिस किसी वस्तु को मानते हो कि यह है, उसे मानलो कि वह है ही नहीं
- ये सुगंधीनि सेवंते तथागंधा भवंति ते।[9]
जो सुगंधित पदार्थों का सेवन करते हैं उनसे वैसी ही सुगंध आती है।
- सर्वे तत्र गमिष्यामो यत एवागता वयम्।[10]
हम सब वहीं जायेंगे जहाँ से आये हैं।
- असम्यग्दर्शनैर्दु:खमनंतं नोपशाम्यति।[11]
मिथ्याज्ञान से अनंत दु:ख मिलता है वह कभी शांत नहीं होता है।
- प्रभवश्च प्रभावश्च नात्मसंस्थ: कदाचन।[12]
प्रभुता और प्रभाव कभी अपने अधीन नहीं होता।
- नैवांतं कारणस्येयाद् यद्यपि स्यान्मोनोजव:।[13]
मन की गति से चलने वाला भी संसार के कारण का अंत नहीं पा सकता
- सर्वरसैस्तृप्तो नाभिनंदति किंचन।[14]
सभी रसों से तृप्त मनुष्य किसी रस का आदर नहीं करता।
- विरक्तं शोध्यते वस्त्रं न तु कृष्णोपसंहितम्।[15]
मलिन वस्त्र धोने से स्वच्छ हो जाता है परंतु अत्यंत मलिन हो तो नहीं
- वदंति कारणै: श्रेष्ठयं स्वपक्षोद्भावनाय वै।[16]
अपने पक्ष की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिये लोग हेतु प्रस्तुत करते हैं।
- अमृतं मनस: प्रीतिं सद्यस्तृप्तिं ददाति च।[17]
अमृत तुरंत मन को प्रसन्नता और तृप्ति देता है।
- छिन्नमूलो ह्यधिष्ठाने सर्वे तज्जीविनो हता:।[18]
मूल आधार नष्ट होते ही उसका आश्रय लेने वाले सभी नष्ट हो जाते हैं।
- भिन्ने हि भाजते तात दिशो गच्छति तद्गतम्।[19]
तात! बर्तन ही टूट जायेगा तो उसमें रखी वस्तु बिखर ही जायेगी।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 220.17
- ↑ वनपर्व महाभारत 36.2
- ↑ वनपर्व महाभारत180.28
- ↑ वनपर्व महाभारत 233.61
- ↑ वनपर्व महाभारत 261.1
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 24.7
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 36.13
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 104.13
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 152.25
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 174.11
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 219.14
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 224.27
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 239.28
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 263.21
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 291.10
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 300.2
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 98.18
- ↑ आदिपर्व महाभारत 138.17
- ↑ शल्यपर्व महाभारत 4.42
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