स्वार्थ (महाभारत संदर्भ)

  • अप्रमत्तेन स्वार्थश्चिंत्य:।[1]

सावधान होकर अपने स्वार्थ का चिन्तन करते रहना चाहिये।

  • मा ते स्वकोऽर्थो निपतेत् मोहात्।[2]

मोह के कारण तेरा अपना स्वार्थ नष्ट हो न जाये।

  • स्वार्थे हि सम्मुह्यति तात लोक:।[3]

तात! संसार स्वार्थ के लिये मोह में लिप्त रहता है।

  • लोको रक्षति चात्मानं पश्य स्वार्थस्य सारताम्।[4]

स्वार्थ का सार तो देखो, लोग अपनी ही रक्षा करना चाहते हैं।

  • स्वार्थं प्राज्ञोऽभिजानाति प्राज्ञं लोकोऽनुवर्तते।[5]

ज्ञानीजन स्वार्थ को समझते हैं और सामान्य लोग उनके पीछे चलते हैं।

  • अनर्थे किं प्रसक्तस्त्वं स्वमर्थे नानुतिष्ठसि।[6]

अनर्थ में क्या आसक्त हो अपना वास्तविक कर्म क्यों नहीं कर रहे हो

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सभापर्व महाभारत 55.6
  2. विराटपर्व महाभारत 66.22
  3. भीष्मपर्व महाभारत 3.60
  4. शांतिपर्व महाभारत 138.147
  5. शांतिपर्व महाभारत 138.158
  6. शांतिपर्व महाभारत 329.33

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