- अप्रमत्तेन स्वार्थश्चिंत्य:।[1]
सावधान होकर अपने स्वार्थ का चिन्तन करते रहना चाहिये।
- मा ते स्वकोऽर्थो निपतेत् मोहात्।[2]
मोह के कारण तेरा अपना स्वार्थ नष्ट हो न जाये।
- स्वार्थे हि सम्मुह्यति तात लोक:।[3]
तात! संसार स्वार्थ के लिये मोह में लिप्त रहता है।
- लोको रक्षति चात्मानं पश्य स्वार्थस्य सारताम्।[4]
स्वार्थ का सार तो देखो, लोग अपनी ही रक्षा करना चाहते हैं।
- स्वार्थं प्राज्ञोऽभिजानाति प्राज्ञं लोकोऽनुवर्तते।[5]
ज्ञानीजन स्वार्थ को समझते हैं और सामान्य लोग उनके पीछे चलते हैं।
- अनर्थे किं प्रसक्तस्त्वं स्वमर्थे नानुतिष्ठसि।[6]
अनर्थ में क्या आसक्त हो अपना वास्तविक कर्म क्यों नहीं कर रहे हो
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सभापर्व महाभारत 55.6
- ↑ विराटपर्व महाभारत 66.22
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 3.60
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 138.147
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 138.158
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 329.33
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