संग (महाभारत संदर्भ)

  • शुष्केणार्द्रं दह्यते मिश्रभावात्।[1]

सूखी लकड़ियों में मिल जाने से गीली लकड़ी भी जल जाती है।

  • पथि संगतमेवैतत् भ्राता माता पिता सखा।[2]

पिता, माता, भाई और मित्र का संग मार्ग में मिले यात्री के समान है।

  • असंत्यागात् पापकृतामपापांस्तुल्यो द्ण्ड: स्पृशते।[3]

पापियों के साथ रहने से सब को समान दण्ड भोगना पड़ता है।

  • संवासाज्जायते स्नेहो जीवितानतकरेष्वपि।[4]

साथ रहने से एक-दूसरे को मार डालने वालों में भी मित्रता हो जाती है।

  • नायमत्यंतसंवासो लब्धपूर्वो हि केनचित्।[5]

संसार में किसी का किसी के साथ सदा साथ नहीं रहा।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उद्योगपर्व महाभारत 34.70
  2. शांतिपर्व महाभारत 28.41
  3. शांतिपर्व महाभारत 73.23
  4. शांतिपर्व महाभारत 139.40
  5. शांतिपर्व महाभारत 319.10

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