- न हि तीव्रतरं किंचिदनृतादिह विद्यते। [1]
संसार में असत्य से अधिक पाप और कुछ नहीं।
- अनृतं जीवित्स्यार्थे वदन्न स्पृश्यतेऽनृतै:। [2]
जीवन की रक्षा के लिये असत्य बोलने पर पाप नहीं लगता।
- पृष्टस्तु नानृतं ब्रूयात्। [3]
किसी के पूछने पर उससे असत्य न बोले।
- प्राणांतिके विवाहे च वक्तव्यमनृतं भवेत्। [4]
प्राण संकट में हों या विवाह का प्रसंग हो तो असत्य बोला जा सकता है।
- अनृतां वा वदेद् वाचं न तु हिंस्यात् कथंचन। [5]
असत्य बोलना पड़े तो बोलें परंतु किसी की हिंसा न करें।
- सर्वस्वस्यापहारे तु वक्तव्यमनृतं भवेत्। [6]
सर्वस्व छीना जा रहा हो तो उसे बचाने के लिये असत्य बोलना चाहिये।
- नर्मण्यभिप्रवृत्ते वा न च प्रोक्तं मृषा भवेत्। [7]
हास-परिहास मे बोला गया असत्य वचन असत्य नहीं होता।
- धर्मार्थमनृतक्त्वा नानृतभाग् भवेत्। [8]
धर्म के लिये असत्य बोलने पर असत्य बोलने का पाप नहीं लगता।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत.74.105
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत.190.47
- ↑ शांतिपर्व महाभारत.223.8
- ↑ वनपर्व महाभारत.209.3
- ↑ कर्णपर्व महाभारत.69.23
- ↑ कर्णपर्व महाभारत.69.34
- ↑ कर्णपर्व महाभारत.69.62
- ↑ कर्णपर्व महाभारत.69.65
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