शोक (महाभारत संदर्भ)

  • शोचते न भवेत् किंचित् केवलं परितप्यते।[1]

शोक करने से लाभ कुछ नहीं होता केवल संताप होता है।

  • न शोक: शोचमानस्य विनिवर्तते कर्हिचत्।[2]

शोक में डूबे रहने से किसी का शोक कभी दूर नहीं हो सकता।

  • सत्कृतस्य हि ते शोको विपरीते कथं भवेत्।[3]

सम्मान पाकर शोक कर रहे हो तो अपमान में तुम्हारी अवस्था क्या होगी।

  • अपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।[4]

जिसका कोई समाधान नहीं उसके लिये तुम्हे शोक नहीं करना चाहिये।

  • शोक: कार्यविनाशन:।[5]

शोक कार्य का विनाश करता है।

  • हीनचेष्टस्य य: स हि शत्रु:।[6]

कोई चेष्टा न करते हुए शोक करे तो वह शोक ऋजु के लिये शत्रु है।

  • शोचन् नंदयते शत्रून् कर्शयत्यपि बांधवान्।[7]

शोक करने वाला अपने शत्रुओं को प्रसन्न करता है और मित्रों को दु:खी

  • कार्यमात्मन: शोकनाशनम्।[8]

अपने शोक को नष्ट करना चाहिये।

  • उत्तिष्ठ शोकमुत्सृज्य।[9]

शोक को त्याग कर खड़े हो जाओ।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वनपर्व महाभारत 216.21
  2. वनपर्व महाभारत 249.37
  3. वनपर्व महाभारत 251.6
  4. भीष्मपर्व महाभारत 26.27
  5. द्रोणपर्व महाभारत 80.7
  6. द्रोणपर्व महाभारत 80.8
  7. द्रोणपर्व महाभारत 80.9
  8. द्रोणपर्व महाभारत 126.25
  9. सौप्तिकपर्व महाभारत 16.27

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