वध (महाभारत संदर्भ)

  • क्षुद्रं जातिवध प्राहु:।[1]

जाति के लोगो के वध को नीच कर्म कहा गया है।

  • धर्मस्य लोप्तारो वध्या:।[2]

धर्म को लुप्त करने वाले वध के योग्य होते हैं।

  • न वध: पूज्यते लोके सुप्तानामिह धर्मत:।[3]

सोये हुये लोगों को मारना धर्म की दृष्टि से अच्छा नहीं माना जाता।

  • विना वधं न कुर्वंति तापसा: प्राणयापनम्।[4]

बिना हिंसा के वन में तपस्वी भी प्राणयान (निर्वाह) नहीं कर पाते।

  • ये च शिष्टान् प्रबाधंते दण्डस्तेषां वध: स्मृत:।[5]

जो शिष्ट पुरुषों को पीड़ित करते हैं उनका वध ही उनका दण्ड है।

  • यस्त्ववध्यवधे दोष: स वध्यस्यावधे स्मृत:।[6]

न मारने योग्य के वध में जो दोष है वही मारने योग्य को न मारने में

  • व्यंगता च शरीरस्य वधो वानल्पकारणात्।[7]

महान् अपराध के बिना किसी का वध या अंगछेदन न किया जाये।

  • वधेनापि न शक्यंते नियन्तुमपरे जना:।[8]

कुछ लोगों को तो मार करके भी वश में नहीं किया जा सकता।

  • तुल्यादिह वध: श्रेयान् विशिष्टाच्चेति निश्चय:।[9]

अपने समान या अपने से श्रेष्ठ के हाथों मरना निश्चय ही श्रेष्ठ है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भीष्मपर्व महाभारत 3.53
  2. द्रोणपर्व महाभारत 181.28
  3. सौप्तिकपर्व महाभारत 5.11
  4. शांतिपर्व महाभारत 15.24
  5. शांतिपर्व महाभारत 135.20
  6. शांतिपर्व महाभारत 142.27
  7. शांतिपर्व महाभारत 166.71
  8. शांतिपर्व महाभारत 267.20
  9. शांतिपर्व महाभारत 297.6

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