प्राज्ञ = ज्ञानी
- प्राज्ञ: शूरो बहूनां हि भवत्येको न संशय:।[1]
नि:संदेह अनेकों में कोई एक ही शूरवीर और प्राज्ञ होता है।
- प्राज्ञास्तात न मुह्मंति कालेनापि प्रपीडिता:।[2]
तात! बुद्धिमान् काल के द्वारा पीड़ित होने पर भी मोहित नहीं होते हैं।
- प्राज्ञो धर्मेण रमते धर्म चैवोपजीवति।[3]
बुद्धिमान् धर्म में ही आनंद मानता है और उसी से जीविका चलाता है
- लोकपर्यायवृत्तान्तं प्राज्ञो जानाति नेतर:।[4]
संसारचक्र को प्राज्ञ ही जानता है और कोई नहीं।
- प्राज्ञैर्मैत्रीं समाचरेत्।[5]
प्राज्ञों से मित्रता करें।
- प्राज्ञो हि पुरुष: स्वल्पमप्रियमिच्छति।[6]
प्राज्ञ का अप्रिय (नापसंद) अल्प होता है।
- न ह्ममित्रे वशं यांति प्राज्ञा निष्कारणम्।[7]
प्राज्ञ बिना कारण शत्रु के वश में नहीं आते।
- प्राज्ञस्य कर्माणि दुरंवयानि।[8]
बुद्धिमान् के कर्म लोगों के समझ में नहीं आते।
- उपपन्नं हि यत् प्राज्ञोनिस्तरेन्नेतरो जन:।[9]
ज्ञानी संसार से पार हो जाते हैं, अज्ञानी नहीं, जो कि उचित भी है।
- प्राज्ञस्यानंतरा सिद्धिरिहलोके परत्र च।[10]
प्राज्ञ को इस लोक और परलोक में शीघ्र ही सिद्धि मिलती है।
- नाधर्म: शिलष्यते प्राज्ञं पय: पुष्करपर्णवत्।[11]
कमल के पत्ते पर पानी की भाँति ही ज्ञानी को अधर्म का लेप नहीं होता
- प्राज्ञ एको बलवान् दुर्बलोऽपि।[12]
प्राज्ञ दुर्बल होते हुए भी बलवान् ही होता है।
- न तु कश्चिन्नयेत् प्राज्ञो गृहीत्वैव करे नरम्।[13]
ज्ञानी मनुष्य भी किसी को हाथ पकड़ कर धर्म में नहीं लगा सकता।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 231.3
- ↑ वनपर्व महाभारत 191.28
- ↑ वनपर्व महाभारत 209.46
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 38.33
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 39.41
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 135.17
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 138.192
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 226.19
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 235.19
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 235.24
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 298.7
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 299.42
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 164.9
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