- सूक्ष्मो धर्मो महाराज नास्य विद्मो वयं गतिम्।[1]
महाराज! धर्म का स्वरूप अति सूक्ष्म है हम उसकी गति को नहीं जानते
- न हि धर्ममविज्ञाय युक्तं गर्हयितुं परम्।[2]
धर्म के स्वरूप को जाने बिना दूसरे की निंदा करना ठीक नहीं।
- न हि कृत्स्नतमो धर्म: शक्य: प्राप्तुमिति श्रुति:।[3]
वेद कहता है कि धर्म का सम्पूर्ण रूप से पालन नहीं किया जा सकता
- स एव धर्म: सोऽधर्मो देशकाले प्रतिष्ठित।[4]
एक ही कर्म किसी स्थान या समय में धर्म किसी में अधर्म हो जाता है।
- आदानमनृतं हिंसा धर्मो ह्मवस्थिक: स्मृत:।[5]
चोरी, असत्य तथा हिंसा भी किसी विशेष अवस्था में धर्म माने जाते है।
- विस्तरेण तु धर्माणां न जात्वंतमवाप्नुयात्।[6]
विस्तार से वर्णन किया जाय तो धर्मों का कभी अंत नहीं होगा।
- अहेरिव हि धर्मस्य पदं दु:खं गवेषितुम्।[7]
सर्प के पदचिह्नो की भाँति धर्म के यथार्थ स्वरूप को ढूढ़ना कठिन है।
- अन्यो धर्म: समस्थस्य विषमस्थस्य चापर:।[8]
अच्छे दिनों का धर्म और है तथा संकट के दिनों का और।
- अकारणो हि नेहास्ति धर्म: सूक्ष्म: हि।[9]
धर्म सूक्ष्म है इसमें कारण के बिना कुछ भी नहीं है।
- कारणाद्धर्ममन्विच्छेन्न लोकचरितं चरेत्।[10]
लोगों का अनुकरण न करे, कारण और तर्क से धर्म का सार खोजे।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 194.29
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 143.41
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 7.40
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 36.11
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 36.11
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 71.2
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 132.20
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 260.4
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 262.35
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 262.53
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