समता (महाभारत संदर्भ)

  • इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन:।[1]

जिनका मन समता में स्थित है उन्होंने जीते जी संसार को जीत लिया

  • सम: सर्वेषु भूतेषु मैत्रायगणगतिश्चरेत्।[2]

सभी प्राणियों के प्रति समान रहें और मित्रता का व्यवहार करें।

  • समा: सर्वत्र मैत्राश्च सर्वभूत हिते रता:।[3]

समासमदर्शी सबके हित में लगे रहते हैं, सब प्राणियों को मित्र मानते हैं।

  • सम: सर्वेषु भूतेषु ब्रह्माणमभिवर्तते।[4]

सभी प्राणियों पर समानभाव रखने वाला ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है।

  • यस्य नास्ति समं चक्षु: किं तस्मिन् मुक्तलक्षणम्।[5]

जिसकी दृष्टि में समता नहीं है उसमें मुक्त का क्या लक्षण है?

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भीष्मपर्व महाभारत 29.19
  2. शांतिपर्व महाभारत 160.27
  3. शांतिपर्व महाभारत 241.14
  4. शांतिपर्व महाभारत 236.36
  5. शांतिपर्व महाभारत 320.132

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