- अलोऽप्यग्निर्वनं कृत्स्नं दहत्याश्रयसंधयात्।[1]
थोड़ी सी अग्नि भी ईंधन का आश्रय पाकर सारे वन को जला देती है।
- अतृणे पतितो वह्नि: स्वयमेवोपशाम्यति।[2]
घास रहित स्थान पर गिरी हुई अग्नि अपने आप शांत हो जाती है।
- अग्नयश्च प्रतिशाम्या भीता संतर्जिता दण्डभयाज्ज्वलंति।[3]
अग्नि बुझती है तो फूँक की फटकार से डरकर फिर जलने लगती है।
- एकगेहे जातवेदा: प्रदीप्त: कृत्स्नं ग्रामं दहते। [4]
एक घर में अग्नि लग जाये तो पूरे गाँव को जला डालती है।
- कस्चित् परशुं गृहीत्वा धमं न पश्येज्जवलनं च काष्ठेठे। [5]
कुल्हाड़े से चीरकर कोई लकड़ी में अग्नि या धुआँ नहीं देख सकता।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 139.12
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 33,51
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 15.31
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 73.21
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 202.12
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