- इंद्रियाणामनैश्वर्यादैश्वर्याद् भ्रश्यते। [1]
इंद्रियों को वश में न रखने के कारण ऋजु ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाता है।
- इंद्रियाणामनुत्सर्गो मृत्युनापि विशिष्यते। [2]
इंद्रियों को सब प्रकार से रोककर रखना मृत्यु से भी अधिक दु:खद है।
- आत्मना चात्मन: पञ्च पीडयन् नानुपीड्यते। [3]
जो पाँचों इंद्रियों का स्वयं दमन करता है वह किसी से पीड़ित नहीं होता।
- ह्नियते बुध्यमानोऽपि नरो हारिभिरिंद्रियै:। [4]
मन को हर लेने वाली इन्द्रियों के द्वारा बुद्धिमान् भी हर लिया जाता है।
- इंद्रियाण्येव संयम्य तपो भवति नान्यथा। [5]
इंद्रियो का संयम करने से ही तप होता है किसी और प्रकार से नहीं।
- इंन्द्रियाणां प्रसड़्गेन दोषमाच्लृन्त्यसंशयम्। [6]
इंद्रियों में आसक्ति से निश्चय ही दोष आ जाते हैं।
- व्यसनैर्न तु संयोगं प्राप्नोति विजितेन्द्रिय:। [7]
इंद्रियों पर संयम रखने वाले को संकट का सामना नहीं करना पड़ता।
- वशे हि यस्येंद्रियाणितस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता। [8]
जिस की इन्द्रियां वश में हैं उसकी बृद्धि स्थिर होती है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत34.63
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत39.51
- ↑ आदिपर्व महाभारत144.26
- ↑ वनपर्व महाभारत2.66
- ↑ वनपर्व महाभारत211.21
- ↑ वनपर्व महाभारत211.21
- ↑ वनपर्व महाभारत259.25
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत26.61
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