- न वै समृद्धिं पालयते लघीयान्।[1]
नीच धन वैभव की रक्षा नहीं कर सकता।
- बुद्धिश्च हीयते पुंसां नीचै: सह समागमात्।[2]
नीचों का साथ करने से मनुष्यों की बुद्धि नष्ट हो जाती है।
- निवर्तमाने सौहार्दे प्रीतिर्नीचे प्रणश्यति।[3]
मित्रता के न रहने पर नीच का प्रेम भी नष्ट हो जाता है।
- अकर्मणा कत्थितेन संत: कुपुरुषं विदु:।[4]
सज्जन बिना कर्म किये अपनी प्रशंसा करने वाले को भी नीच मानते है।
- नीचस्य बलमेतावत् पारूष्यम्।[5]
कटुवचन ही नीच का बल है।
- नीचा व्यसनेषु मग्ना निंदति दैवं कुकृतं न तु स्वम्।[6]
नीच संकट में भाग्य की ही निंदा करते हैं अपने किये कुकर्मों की नहीं
- संदर्शनेन पुरुषं जघन्यपि चोदयेत्।[7]
नीच मनुष्य को देखते ही अपने पास से भगा दे।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सभापर्व महाभारत 67.14
- ↑ वनपर्व महाभारत 1.30
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 39.14*मित्रता यदि समाप्त हो जाये तो नीच पहले के सभी उपकारों को भूलकर अहित करना आरम्भ कर देता है।
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 160.86
- ↑ कर्णपर्व महाभारत 43.5
- ↑ कर्णपर्व महाभारत 91.1
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 120.49
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