- स्वधर्म प्रतिपद्यस्व।[1]
अपने धर्म का पालन करो।
- स्वधर्माद्धि मनुष्याणां चलनं न प्रशस्यते।[2]
मनुष्य का अपने धर्म से पतन शोभा की बात नहीं।
- स्वधर्मस्थ: परं धर्म बुध्यस्वागमयस्व च।[3]
अपने धर्म में स्थित रहकर श्रेष्ठ धर्म जानो और उसका पालन करो।
- श्रेयान् स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।[4]
अपने धर्म का समुचित आचरण ना भी हो तो भी परधर्म से अच्छा है।
- स्वधर्मे यत्र रागस्ते कामं धर्मो विधीयताम्।[5]
अपने धर्म के अनुसार जिस काम में तुम्हारा मन लगे उसे करते रहो।
- यो हि यस्मिन् रतो धर्म स तं पूजयते सद।[6]
जो जिस धर्म में रत (श्रद्धा रखता) है वह सदा उसी का आदर करता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 33.52
- ↑ वनपर्व महाभारत 33.56
- ↑ वनपर्व महाभारत 150.25
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 42.47
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 309.20
- ↑ आश्वमेधिकपर्व महाभारत 49.14
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