धनवान् (महाभारत संदर्भ)

  • नाथिकोऽर्थिनमभ्येति।[1]

धनवान् किसी धनवान् के पास नहीं जाता। (धन के लिये)

  • भयमर्थवतां नित्यं मृत्यो प्राणभृतामिव्।[2]

धनवालों को सदा वैसे ही भय रहता जैसे कि प्राणियों को मृत्यु से।

  • धनवंतं हि मित्राणी भजन्ते चाश्रयंति च।[3]

धनवान् के पास ही मित्र आकर आश्रय लेते हैं और सेवा करते हैं।

  • वासंतार्क इव श्रीमान् न शीतो न घर्मद:।[4]

वसंत में सूर्य न ठंडा होता है और न गर्म, वैसे ही धनवान् न कोमल हो न कठोर

  • अड्ग़मेतन्महद् राज्ये धनिन:।[5]

धनवान् लोग राज्य के महान् अंग हैं।

  • ककुदं सर्भूतानां धनस्थो नात्र संशय:।[6]

धनवान् मनुष्य सभी मनुष्योंमें प्रधान होता है इसमें संशय नहीं है।

  • उच्चैवृत्ते: श्रियो हानिर्यथैव मरणं तथा।[7]

उत्तम स्थिति में रहने के बाद धन की हानि मृत्यु के समान है।

  • नित्योद्विग्नो हि धनवान् मृत्योरास्यगतो यथा।[8]

धनवान् सदा पीड़ित रहता है जैसे कि मृत्यु के मुख में पड़ा हो।

  • सर्वं धनवता प्राप्यं सर्वं तरित कोशवान्।[9]

धनवान् को सबकुछ सुलभ है वह सारे संकटों से पार हो जाता है।

  • न ह्मत्यंतं धनवंतो भवंति सुखिनोऽपि वा।[10]

न तो कोई अत्यंत धनवान् ही होता है और ना अत्यन्त सुखी ही।

  • इह लोके हि धनिनां स्वजन: स्वजनायते।[11]

इस लोक में धनवानों के साथ ही अपने अपनों जैसा व्यवहार करते हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदिपर्व महाभारत 139.79
  2. वनपर्व महाभारत 2.39
  3. उद्योगपर्व महाभारत 135.38
  4. शांतिपर्व महाभारत 56.40
  5. शांतिपर्व महाभारत 88.30
  6. शांतिपर्व महाभारत 88.30
  7. शांतिपर्व महाभारत 133.5
  8. शांतिपर्व महाभारत 176.11
  9. शांतिपर्व महाभारत 130.49
  10. शांतिपर्व महाभारत 259.19
  11. शांतिपर्व महाभारत 321.88

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