संत: (महाभारत संदर्भ) 3

  • न च प्रसाद: सत्पुरुषेषु मोघ:।[1]

सत्पुरुषों का प्रसाद कभी व्यर्थ नहीं जाता।

  • विर्वजनं ह्यकार्याणामेतत् सुपुरुषव्रतम्।[2]

अनुचित कार्य को त्याग देना ही सज्जनों का व्रत होता है।

  • पूर्वं चाभिगतं सन्तो भजंते पूर्वसारिण:।[3]

सज्जन पहले आये हुए प्रार्थी की सहायता करते हैं।

  • संतं न जिघांसेत।[4]

संत को मारने की इच्छा न करे।

  • गतिरात्मावतां संत:।[5]

संत मनस्वी लोगों को आश्रय देते है।

  • संत एव सतां गति:।[6]

संतो को भी आश्रय संत ही देते हैं।

  • असतां च गति: संतो न त्वसंत: सतां गति:।[7]

संत दुर्जनों को आश्रय देते हैं परंतु दुर्जन संतों को आश्रय नहीं देते ।

  • अलं प्रसन्ना हि सुखाय संत:।[8]

जिस पर संत प्रसन्न है वह सुखी रहता है।

  • धर्मार्थयुक्ता लोकोऽस्मिन् प्रवृत्तिर्लक्ष्यते सताम्।[9]

संसार में सज्जनों का व्यवहार धर्म और अर्थ से युक्त देखा जाता है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वनपर्व महाभारत 297.50
  2. विराटपर्व महाभारत 14.36
  3. उद्योगपर्व महाभारत 7.14
  4. उद्योगपर्व महाभारत 10.24
  5. उद्योगपर्व महाभारत 34.46
  6. उद्योगपर्व महाभारत 34.46
  7. उद्योगपर्व महाभारत 34.46
  8. उद्योगपर्व महाभारत 40.1
  9. उद्योगपर्व महाभारत 124.11

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