व्यवहार = कैसा करना चाहिये
- मा व्यापृत: परकार्येषु भू:।[1]
दूसरों के कामों में हस्तक्षेप मत करो।
- न युज्यते कर्म युष्मासु हीनम्।[2]
तुम लोग तुच्छ कर्म करो यह उचित नहीं।
- विषमस्थ: परेषु सामस्थ्यमविच्छति तन्न साधु:।[3]
ऋजु स्वयं कुमर्म करता है औरों में समता खोजता है यह उचित नहीं है।
- एको न गच्छेदध्वानम्।[4]
अकेले यात्रा न करे।
- साध्वाचार: साधुना प्रत्युपेय:।[5]
अच्छा व्यवहार करने वाले के साथ अच्छा ही व्यवहार करें।
- न चत्वरे निशि तिष्ठेत्रिगूढो।[6]
रात में चौराहे पर छिपकर खड़ा न हो।
- सम्बन्धिषु समां वृत्तिं वर्तस्व।[7]
सम्बंधियों के साथ समान व्यवहार करो।
- अधार्याणि विशीर्णानि वसनानि।[8]
फटे पुराने कपड़े धारण न करें।
- ईक्षित: प्रतिवीक्षेत।[9]
मृदु ऋजु को देखे तो ऋजु भी उसे देखे।
- न पूर्णोस्मीति मन्येत।[10]
कभी अपने आपको पूर्ण न समझे।
- सुवर्णमपि चामेध्यादाददीताविचारयन्।[11]
अपवित्र स्थान में सोना पड़ा हो तो उसे बिना विचारे उठा लेना चाहिये।
- तथा च सर्वभूतेषु वर्तितव्यं यथात्मनि।[12]
सभी प्राणियों के साथ वैसा ही व्यवहार करें जैसा अपने लिये चाहते है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सभापर्व महाभारत 64.6
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 25.6
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 26.9
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 33.46
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 37.7
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 37.28
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 157.28
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 60.33
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 67.39
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 92.12
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 165.31
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 167.9
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