षष्ठ (6) अध्याय: सौप्तिक पर्व
महाभारत: सौप्तिक पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद
मनीषी पुरुष उसी को अत्यन्त भयंकर आपत्ति बताते हैं, जबकि मनुष्य किसी महान कार्य का आरम्भ करके भय के कारण भी उससे पीछे हट जाता है और शक्ति-बल से यहाँ उस कर्म को करने में असमर्थ हो जाता है। मानव-कर्म (पुरुषार्थ) को दैव से बढ़कर नहीं बताया गया है। पुरुषार्थ करते समय यदि दैववश सिद्घि नहीं प्राप्त हुई तो मनुष्य धर्ममार्ग से भ्रष्ट होकर विपत्ति में फँस जाता है। यदि मनुष्य किसी कार्य को आरम्भ करके यहाँ भय के कारण उससे निवृत हो जाता है तो ज्ञानी पुरुष उसकी उस कार्य को करने की प्रतिज्ञा को अज्ञान या मूर्खता बताते हैं। इस समय अपने ही दुष्कर्म के कारण मुझ पर यह भय पहुँचा है। द्रोणाचार्य का पुत्र किसी प्रकार भी युद्ध से पीछे नहीं हट सकता; परंतु क्या करूँ, यह महाभूत मेरे मार्ग में विघ्न डालने के लिये दैवदण्ड के समान उठ खड़ा हुआ है। मैं सब प्रकार से सोचने-विचारने पर भी नहीं समझ पाता कि यह कौन है? निश्चय ही जो मेरी यह कलुषित बुद्धि अधर्म में प्रवृत हुई है, उसी का विघात करने के लिये यह भयंकर परिणाम सामने आया है, अत: आज युद्ध से मेरा पीछे हटना दैव के विधान से ही सम्भव हुआ है। दैव की अनुकूलता के सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं है, जिससे किसी प्रकार फिर यहाँ युद्धविषयक उद्योग किया जा सके; इसलिये आज मैं सर्वव्यापी भगवान महादेव जी की शरण लेता हूँ। वे ही मेरे सामने आये हुए इस भयानक दैवदण्ड का नाश करेंगे। भगवान शंकर तपस्या और पराक्रम में सब देवताओं से बढ़कर हैं; अत: मैं उन्हीं रोग-शोक से रहित, जटाजूटधारी, देवताओं के भी देवता, भगवती उमा के प्राणवल्लभ, कपालमालाधारी, भगनेत्र-विनाशक, पापहारी, त्रिशूलधारी एवं पर्वत पर शयन करने वाले रुद्रदेव की शरण में जाता हूँ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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