सप्तषष्टितम (67) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: सप्तषष्टितम अध्याय: श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! दुर्योधन क्या करना चाहता है, यह सुनकर युधिष्ठिर ने द्रौपदी के पास एक ऐसा दूत भेजा, जिसे वह पहचानती थी और उसी के द्वारा यह संदेश कहलाया, ‘पाचालराजकुमारी! यद्यपि तुम रजस्वला और नीबी को नीचे रखकर एक ही वस्त्र धारण कर रही हो, तो भी उसी दशा में रोती हुई सभा में आकर अपने श्वशुर के सामने खड़ी हो जाओ। तुम-जैसी राजकुमारी को सभा में आयी देख सभी सभासद् मन-ही-मन इस दुर्योधन की निन्दा करेंगे’। राजन्! वह बुद्धिमान दूत तुरंत द्रौपदी के भवन में गया। वहाँ उसने धर्मराज का निश्चित मत उसे बता दिया। इधर महात्मा पाण्डव सत्य के बन्धन से बँधकर अत्यन्त दीन और दु:खमग्न हो गये। उन्हें कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था। उनके दीन मुँह की ओर देखकर राजा दुर्योधन अत्यन्त प्रसन्न हो सूत से बोला- ‘प्रातिकामिन्! तुम द्रौपदी को यहीं ले जाओ। उसके सामने ही धर्मात्मा कौरव उसके प्रश्नों का उत्तर देंगे’। तदनन्तर दुर्योधन के वश में रहने वाले प्रातिकामी ने द्रौपदी के क्रोध से डरते हुए अपने मान-सम्मान की परवा न करके पुन: सभासदों से पूछा- ‘मैं द्रौपदी को क्या उत्तर दूँ?’ दुर्योधन बोला- दु:शासन! यह मेरा सेवक सूतपूत्र प्रातिकामी बड़ा मूर्ख है। इसे भीमसेन का डर लगा हुआ है। तुम स्वयं द्रौपदी को यहाँ पकड़ लाओ। हमारे शत्रु पाण्डव इस समय हम लोगों के वश में हैं। वे तुम्हारा क्या कर लेंगे। भाई का यह आदेश सुनकर राजकुमार दु:शासन उठ खड़ा हुआ और लाल आँख किये वहाँ से चल दिया। महारथी पाण्डवों के महल में प्रवेश करके उसने राजकुमारी द्रौपदी से इस प्रकार कहा- ‘पांचालि! आओ, आओ, तुम जूए में जीती जा चुकी हो। कृष्णे! अब लज्जा छोड़कर दुर्योधन की ओर देखो। कमल के समान विशाल नेत्रों वाली द्रौपदी! हमने धर्म के अनुसार तुम्हें प्राप्त किया है, अत: तुम कौरवों की सेवा करो। अभी राजसभा में चली चलो’। यह सुनकर द्रौपदी का हृदय अत्यन्त दु:खित होने लगा। उसने अपने मलिन मुख को हाथ से पोंछा। फिर उठकर वह आर्त अबला उसी ओर भागी, जहाँ बूढ़े महाराज धृतराष्ट्र की स्त्रियाँ बैठी हुई थीं। तब दु:शासन भी रोष से गर्जता हुआ बड़े वेग से उसके पीछे दौड़ा। उसने महाराज युधिष्ठिर की पत्नी द्रौपदी के लम्बे, नीले और लहराते हुए केशों को पकड़ लिया। जो केश राजसूय महायज्ञ के अवभृथस्थान में मन्त्रपूत जल से सींचे गये थे, उन्हीं को दु:शासन ने पाण्डवों के पराक्रम की अवहेलना करके बलात्कारपूर्वक पकड़ लिया। लम्बे-लम्बे केशों वाली वह द्रौपदी यद्यपि सनाथा थी, तो भी दु:शासन उस बेचारी आर्त अबला को अनाथ की भाँति घसीटता हुआ सभा के समीप ले आया और जैसे वायु केले के वृक्ष को झकझोरकर झुका देता है, उसी प्रकार वह द्रौपदी को बलपूर्वक खींचने लगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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