महाभारत सभा पर्व अध्याय 65 श्लोक 17-31

पंचषष्टितम (65) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: पंचषष्टितम अध्याय: श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद


शकुनि बोला- राजन्! आपके ये दोनों प्रिय भाई माद्री के पुत्र नकुल-सहदेव तो मेरे द्वारा जीत लिये गये, अब रहे भीमसेन और अर्जुन। मैं समझता हूँ, वे दोनों आपके लिये अधिक गौरव की वस्‍तु हैं (इसीलिये आप इन्‍हें दाँव पर नहीं लगाते)। युधिष्ठिर बोले- ओ मूढ़! तू निश्‍चय ही अधर्म का आचरण कर रहा है, जो न्‍याय की ओर नहीं देखता। तू शुद्ध हृदय वाले हमारे भाइयों में फूट डालना चाहता है।

शकुनि बोला- राजन्! धन के लोभ से अधर्म करने वाला मतवाला मनुष्‍य नरककुण्‍ड में गिरता है। अधिक उन्‍मत्त हुआ ठूँठा काठ हो जाता है। आप तो आयु में बड़े और गुणों में श्रेष्‍ठ हैं। भरतवंश विभूषण! आपको नमस्‍कार है। धर्मराज युधिष्ठिर! जुआरी जूआ खेलते समय पागल होकर जो अनाप-शनाप बातें बक जाया करते हैं, वे न कभी स्‍वप्‍न में दिखायी देती हैं और न जाग्रत् काल में ही।

युधिष्ठिर ने कहा- शकुने! जो युद्धरूपी समुद्र में हम लोगों को नौका की भाँति पार लगाने वाले हैं तथा शत्रुओं पर विजय पाते हैं, वे लोक विख्‍यात वेगशाली वीर राजकुमार अर्जुन यद्यपि दाँव पर लगाने योग्‍य नहीं हैं, तो भी उनको दाँव पर लगाकर मैं तुम्‍हारे साथ खेलता हूँ। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यह सुनकर कपटी शकुनि ने पूर्ववत् विजय का निश्‍चय करके युधिष्ठिर से कहा- ‘यह भी मैंने ही जीता’।

शकुनि फिर बोला- राजन्! ये पाण्‍डवों में धनुर्धर वीर सव्‍यसाची अर्जुन मेरे द्वारा जीत लिये गये। पाण्‍डुनन्‍दन! अब आपके पास भीमसेन ही जुआरियों को प्राप्‍त होने वाले धन के रूप में शेष हैं, अत: उन्‍हीं को दाँव पर रखकर खेलिये। युधिष्ठिर ने कहा- राजन्! जो युद्ध में हमारे सेना-पति और दानवशत्रु बज्रधारी इन्‍द्र के समान अकेले ही आगे बढ़ने वाले हैं; जो तिरछी दृष्टि से देखते हैं, निजकी भौंहें धनुष की भाँति झुकी हुई हैं, जिनका हृदय विशाल और कंधे सिंह के समान हैं, जो सदा अत्‍यन्‍त अमर्ष में भरे रहते हैं, बल में जिनकी समानता करने वाला कोई पुरुष नहीं है, जो गदाधारियों में अग्रगण्‍य तथा अपने शत्रुओं को कुचल डालने वाले हैं, उन्‍हीं राजकुमार भीमसेन को दाँव पर लगाकर मैं जुआ खेलता हूँ। यद्यपि वे इसके योग्‍य नहीं हैं। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यह सुनकर शठता का आश्रय शकुनि ने उसी निश्‍चय के साथ युधिष्ठिर से कहा, ‘यह दाँव भी मैंने ही जीता’।

शकुनि बोला- राजन्! कुन्‍तीनन्‍दन! आप अपने भाइयों और हाथी-घोड़ों सहित बहुत धन हार चुके, अब आपके पास बिना हारा हुआ धन कोई अवशिष्‍ट हो, तो बतलाइये। युधिष्ठिर ने कहा- मैं अपने सब भाइयों में बड़ा और सबका प्रिय हूँ; अत: अपने को ही दाँव पर लगाता हूँ। यदि मैं हार गया तो पराजित दास की भाँति सब कार्य करूँगा। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यह सुनकर कपटी शकुनि ने निश्‍चयपूर्वक अपनी जीत घोषित करते हुए युधिष्ठिर से कहा- ‘यह दाँव भी मैंने ही जीता’।

शकुनि फिर बोला- राजन्! आप अपने को दाँव पर लगाकर जो हार गये, यह आपके द्वारा बड़ा अधर्म-कार्य हुआ। धन के शेष रहते हुए अपने आपको हार जाना महान् पाप है। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! पासा फेंकने की विद्या में निपुण शकुनि ने राजा युधिष्ठिर से दाँव लगाने के विषय में उक्‍त बातें कहकर सभा में बैठे हुए लोकप्रसिद्ध वीर राजाओं को पृथक्-पृथक् पाण्‍डवों की पराजय सूचित की।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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