पन्चचत्वारिंश (45) अध्याय: सभा पर्व (शिशुपालवध पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: पन्चचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 38-39 का हिन्दी अनुवाद
उस राजसूय यज्ञ में भीष्म, द्रोण और दुर्योधन आदि समस्त कौरव, सारे वृष्णिवंशी तथा सम्पूर्ण पांचाल भी सेवकों की भाँति यथायोग्य सभी कार्य अपने हाथों करते थे। महाबाहु जनमेजय! इस प्रकार बुद्धिमान युधिष्ठिर का वह यज्ञ चन्द्रमा के राजसूय यज्ञ की भाँति शोभा पाता था। धर्मराज युधिष्ठिर उस यज्ञ में हर समय वस्त्र, कम्बर, चादर, स्वर्णपदक, सोने के बर्तन और सब प्रकार के आभूषणों का दान करते रहते थे। वहाँ राजाओं से जो-जो रत्न अथवा उत्तम धन भेंट के रूप में प्राप्त हुए, उन सबको युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों की सेवा में समर्पित कर दिया। उन्होंने महात्मा ब्राह्मणों को दक्षिणा के रूप में सहस्र कोटि स्वर्ण मुद्राएँ प्रदान कीं। उन्होंने संसार में वह कार्य किया जिसे दूसरा कोई राजा नहीं कर सकेगा। यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण सम्पूर्ण मनोवान्छित वस्तुएँ और प्रचुर धन पाकर, सदा के लिये तृप्त हो गये। फिर राजा युधिष्ठिर ने व्याप्त, धौम्य, महामति नारद, सुमन्तु, जैमिनि, पैल, वैशम्पायन, याज्ञवल्क्य, कठ तथा महातेजस्वी कलाप- इन सब श्रेष्ठ ब्राह्मणों का पूर्ण मनोयोग के साथ सत्कार एवं पूजन किया। युधिष्ठिर उनसे बोले- महर्षियों! आप लोगों के प्रभाव से यह राजसूय महायज्ञ सांगोपांग सम्पन्न हुआ। भगवान श्रीकृष्ण के प्रताप से मेरा सारा मनोरथ पूर्ण हो गया। वैशम्पायन जी कहते हैं। जनमेजय! इस प्रकार यज्ञ समाप्ति के समय राजा युधिष्ठिर ने अन्त में लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्ण, देवेश्वर बलदेव तथा कुरुश्रेष्ठ भीष्म आदि का पूजन किया। तदनन्तर उस राजसूय महायज्ञ को विधिपूर्वक समाप्त किया। शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण ने आरम्भ से लेकर अन्त तक उस यज्ञ की रक्षा की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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