महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 17

अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 17 का हिन्दी अनुवाद
कृष्णावतार:

राजन्! तदनन्तर अब अट्ठाईसवें द्वापर में भयभीतों को अभय देने वाले श्रीवत्सविभूषित महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण के रूप में श्रीविष्णु का अवतार हुआ है। ये इस लोक में परम सुन्दर, उदार, मनुष्यों में अत्यन्त सम्मानित, स्मरण शक्ति से सम्पन्न, देश काल के शाता एवं शंख, चक्र, गदा और खड्ग आदि आयुध धारण करने वाले हैं। वासुदेव के नाम से इनकी प्रसिद्धि है। ये सदा सब लोगों के हित में संलग्न रहते हैं। भूदेवी का प्रिय कार्य करने की इच्छा से इन्होंने वृष्णि वंश में अवतार ग्रहण किया है। ये ही मनुष्यों को अभयदान करने वाले हैं। इन्हीं की मधुसूदन नाम से प्रसिद्धि है। इन्होंने ही शकटासुर, यमलार्जुन और पूतना के मर्म स्थानों में आघात करके उनका संहार किया है। मनुष्य शरीर में प्रकट हुए कंस आदि दैत्यों को युद्ध में मार गिराया। परमात्मा का यह अवतार भी लोकहित के लिये ही हुआ है।


कल्क्यवतार:

कलियुग के अन्त में जब धर्म शिथिल हो जायगा, उस समय भगवान श्रीहरि पाखण्डियों के वध तथा धर्म की वृद्धि के लिये और ब्राह्मणों के हित की कामना से पुन: अवतार लेेंगे। उनके उस अवतार का नाम होगा ‘कल्कि विष्णुयशा’। भगवान के ये तथा और भी बहुत से दिव्य अवतार देवगणों के साथ होते हैं, जिनका ब्रह्मवादी पुरुष पुराणों में वर्णन करते हैं।

दक्षिणात्य प्रति में अध्याय समाप्त
श्रीकृष्ण का प्राकट्य तथा श्रीकृष्ण-बलराम की बाललीलाओं का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीष्म जी के इस प्रकार कहने पर आनन्दित करने वाले कुन्तीकुमार धर्मराज युधिष्ठिर पुन: उनसे कहा। युधिष्ठिर बोले- वक्ताओं में श्रेष्ठ नरेन्द्र! मैं यशस्वी भगवान विष्णु के वृष्णिवंश में अवतार ग्रहण करने का वृत्तान्त पुन: (विस्तारपूर्वक) जानना चाहता हूँ। पितामह! परम बुद्धिमान भगवान जनार्दन इस पृथ्वी पर मधुवंश में जिस प्रकार उत्पन्न हुए, वह सब प्रसंग मुझसे कहिये। बैल के समान विशाल नेत्रों वाले लोकरक्षक महातेजस्वी श्रीकृष्ण ने किसलिये कंस का वध करके गौओं की रक्षा की? बुद्धिमानों में श्रेष्ठ पितामह! उस समय बाल्यावस्था में बालकोचित क्रीड़ाएँ करते समय भगवान गोविन्द ने क्या-क्या लीलाएँ की? यह सब मुझे बताइये।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजा युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर महापराक्रमी भीष्म ने मधुवंश में भगवान केशव के अवतार लेने की कथा कहनी आरम्भ की। भीष्म जी बोले- कुरुरत्न युधिष्ठिर! अब मैं वृष्णिवंश में भगवान नारायण के अवतार ग्रहण का यथावत वृत्तान्त कहूँगा। भरत कूलभूषण तात अजातशत्रो! वसुधा की रक्षा करने वाले ये भगवान यहाँ किस प्रकार प्रकट हुए? यह में बतला रहा हूँ, ध्यान देकर सुनो। भगवान के जन्म के समय आनन्दोद्रेक के कारण समुद्र में उत्ताल तरंगें उठने लगीं, पर्वत हिलने लगे और बुझी हुई अग्रियाँ भी सहसा प्रज्वलित हो उठीं। भगवान जनार्दन के जन्मकाल में शीतल, मन्द एवं सुखद वायु चलने लगी। धरती की धूल शान्त हो गयी और नक्षत्र प्रकाशित होने लगे। आकाश में देवलोक के नगाड़े जोर-जोर से बजने लगे और वेदगण आ-आकर वहाँ फूलों की वर्षा करने लगे। वे मंगलमयी वाणी द्वारा भगवान मधुसूदन की स्तुति करने लगे। भगवान के अवतार का समय जान महर्षिगण भी अत्यन्त प्रसन्न होकर वहाँ आ पहुँचे। नारद आदि देवर्षियों को उपस्थित देख गन्धर्व और अप्सराएँ नाचने और गाने लगीं। उस समय सहस्र नेत्रों वाले शचीवल्लभ तेजस्वी इन्द्र भगवान गोविन्द की सेवा में उपस्थित हुए और महर्षियों का आदर करते हुए बोले।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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