महाभारत श्रवण विधि श्लोक 65-84

महाभारत श्रवण विधि:

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महाभारत: श्रवण विधि: श्लोक 65-84 का हिन्दी अनुवाद


राजेन्‍द्र! शल्‍य पर्व में मिठाई, गुड़, भात, पूआ तथा तृप्तिकारक फल आदि के साथ सब प्रकार के उत्‍तम अन्‍न दान करे। गदा पर्व में भी मूंग मिलाये हुए चावल का दान करे। स्‍त्री पर्व में रत्‍नों द्वारा श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों को तृप्‍त करे।। एषीक पर्व में पहले ही मिलाया हुआ भात जिमाये। अच्‍छी तरह संस्‍कार किये हुए सर्वगुणसम्‍पन्‍न अन्‍न का दान करे। शान्ति पर्व में भी ब्राह्मणों को हविष्‍य भोजन कराये। आश्वमेधिक पर्व में पहुँचने पर सबकी रुचि के अनुकूल उत्‍तम भोजन दे। आश्रमवासिक पर्व में ब्राह्मणों को हविष्‍य भोजन कराये। मौसल पर्व में सर्वगुणसम्‍पन्‍न अन्‍न, चन्‍दन, माला और अनुलेपन का दान करे।

इसी प्रकार महाप्रस्थानिक पर्व में भी समस्‍त वांछनीय गुणों से युक्‍त अन्‍न आदि का दान करे। स्वर्गारोहण पर्व में भी ब्राह्मणों को हविष्‍य खिलाये। हरिवंश की समाप्ति होने पर एक हज़ार ब्राह्मणों को भोजन कराये तथा स्‍वर्ण मुद्रा सहित एक गौ ब्राह्मणों को दान दे। पृथ्‍वीनाथ यदि श्रोता दरिद्र हो तो उसे भी आधी दक्षिणा के साथ गोदान करना चाहिये। प्रत्‍येक पर्व की समाप्ति पर विद्वान पुरुष सुवर्ण सहित पुस्‍तक वाचकों को समर्पित करे। राजन! भरतश्रेष्‍ठ! हरिवंश पर्व में भी प्रत्‍येक पारण के समय ब्राह्मणों को यथावत रूप से खीर भोजन कराये। इस प्रकार एकाग्रचित्‍त हो सब पर्वों की संहिताओं को समाप्‍त करके शास्‍त्रवेत्‍ता पुरुषों को चाहिये कि वह उन्‍हें रेशमी वस्‍त्रों में लपेट कर किसी उत्‍तम स्‍थान में रखे और स्‍वंय स्नान आदि से पवित्र हो श्‍वेत वस्‍त्र, फूल की माला तथा आभूषण धारण करके चन्‍दन-माला आदि उपचारों से उन संहिता-पुस्‍तकों की पृथक-पृथक विधिवत पूजा करे। पूजा के समय चित्‍त को एकाग्र एवं शुद्ध रखे। भाँति-भाँति के उत्‍तम भक्ष्‍य, भोजन, पेय, माल्‍य तथा अन्‍य कमनीय वस्‍तुएं भेंट के रूप में चढ़ाये। इसके बाद हिरण्‍य एवं सुवर्ण की दक्षिणा दे। मन को वश रखकर सभी पुस्‍तकों पर तीन-तीन पल सोना चढ़ाना चाहिये। इतना न हो सके तो सब पर डेढ़-डेढ़ पल सोना चढ़ाये ओर यह भी सम्‍भव न हो तो पौन-पौन चढ़ाये; परन्‍तु धन रहते हुए कंजूसी नहीं करनी चाहिये। जो-जो वस्‍तु अपने को प्रिय लगती हो, वही-वही ब्राह्मणों को दान में देनी चाहिये।

कथावाचक अपना गुरु होता है, अत: उसके प्रति भक्तिभाव रखते हूए उसे सर्वथा संतुष्‍ट करना चाहिये। उस समय सम्‍पूर्ण देवताओं तथा भगवान नर-नारायण का कीर्तन करना चाहिये। तदनन्‍तर श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों को चंदन और माला आदि से विभूषित करके उन्‍हें नाना प्रकार की मनोवांच्छित वस्‍तुएँ और भाँति-भाँति के छोटे-बड़े आवश्‍यक पदार्थ देकर सन्‍तुष्‍ट करे। ऐसा करने से मनुष्‍य को अतिरात्र यज्ञ का फल मिलता है तथा प्रत्‍येक पर्व की समाप्ति पर ब्राह्मण की पूजा करने से श्रौत यज्ञ का फल प्राप्‍त होता है।

भरतश्रेष्‍ठ! कथावाचक को विद्वान होना चाहिये और प्रत्‍येक अक्षर पद तथा स्‍वर का सुस्‍पष्‍ट उच्‍चारण करते हुए उसे महाभारत या हरिवंश के भविष्‍य पर्व की कथा सुननी चाहिये। भरतभूषण! सम्‍पूर्ण कथा की समाप्ति होने के बाद श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों के भोजन कर लेने पर उन्‍हें यथोचित दान देना चाहिये। फिर वाचक को भी वस्त्राभूषणों से अलंकृत करके उत्‍तम अन्‍न भोजन करना चाहिये। इसके बाद उसे दान-मान से सन्‍तुष्‍ट करना उचित है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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