महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 82 श्लोक 17-29

द्वयशीतितम (82) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: द्वयशीतितम अध्याय: श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद

राजन! आप प्रजा के प्राण और धन के स्वामी हैं। मैं आप से अभय की याचना करता हूँ। यदि आज्ञा हो तो मैं आपसे हित की बात कहूँ। ‘आप मेरे मित्र हैं। मैं आप के हित के लिये आपके प्रति सम्पूर्ण हृदय से भक्ति भाव रखकर यहाँ आया हूँ। आपकी जो हानि हो रही है, उसे देखकर मैं बहुत संतप्त हूँ। ‘जैसे सारथि अच्छे घोडे़ को सचेत करता है, उसी प्रकार यदि कोई मित्र मित्र को समझाने के लिये आया हो, मित्र की हानि देखकर जो अत्यन्त दुखी हो और उसे सहन न कर सकने के कारण जो हठपूर्वक अपने सुहृद राजा का हितसाधन करने के लिये उसके पास आकर कहे कि ‘राजन! तुम्हारे इस धन का अपहरण हो रहा है’ तो सदा ऐश्वर्य और उन्नति की इच्छा रखने वाले विज्ञ एवं सुहृद् पुरुष को अपने उस हितकारी मित्र की बात सुननी चाहिये और उसके अपराध को क्षमा कर देना चाहिये’। राजा क्षेमदर्शी और कालकवृक्षी मुनि तब राजा ने मुनि को इस प्रकार उत्तर दिया - ब्राहाण! आप जो कुछ कहना चाहे, मुझसे निर्भर होकर कहें। अपने हित की इच्छा रखने वाला मैं आपको क्षमा क्यो नहीं करूँगा ? विप्रवर! आप जो चाहें , कहिये। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि आप मुझसे जो कोई भी बात कहेंगे, आपकी उस आज्ञाका मैं पालन करूँगा‘।

मुनि बोले -महाराज! आपके कर्मचारियों में से कौन अपराधी है और कौन निरपराध? इस बात का पता लगाकर तथा आप पर आपके सेवकों की ओर से ही अनेक भय आने वाले हैं, यह जाकर प्रेमपूर्वक राज्य का सारा समाचार बताने के लिये मैं आपके पास आया था। नीतिशास्त्र आचार्यं ने राज सेवकों के इस दोष का पहले से ही वर्णन कर रखा है कि राजा की सेवा करने वाले लोग हैं उनके लिये यह पापमयी जीविका अगतिक गति है, अर्थात जिन्हें कहीं भी सहारा नहीं मिलता, वे राजा के सेवक होते हैं। जिसका राजाओं के साथ मेल-जोल हो गयी, ऐसी नीतिज्ञों का कथन है। राजा के जहाँ बहुत से मित्र होते है, वहीं उनके अनेक शत्रु भी हुआ करते हैं। राजा के आश्रित होकर जीविका चलाने वालों को उन सभी से भय बताया गया है। राजन्! स्वयं राजा से भी उन्हें घड़ी - घड़ी में खतरा रहता है। राजा के पास रहने वालों से कभी कोई प्रमाद हो ही नहीं, यह तो असम्भव है, परंतु जो अपना भला चाहता हो उसे किसी तरह उसके पास जान -बूझकर प्रमाद नहीं करना चाहिये। यदि सेवक के द्वारा असावधानी के कारण कोई अपराध बन गया तो राजा पहले के उपकार को भुलाकर कुपित हो उससे द्वेष करने लगता है और जब राजा अपनी मर्यादा से भ्रष्ट हो जाय तो उस सेवक के जीवन की आशा नहीं रह जाती। जैसे जलती हुई आग के पास मनुष्य सचेत होकर जाता है, उसी प्रकार शिक्षित पुरुष को राजा के पास सावधानी से रहना चाहिये। राजा प्राण और धन दोनों का स्वामी है। जब वह कुपित होता है तो विषधर सर्प के समान भयंकर हो जाता है; अतः मनुष्य को चाहिये कि मैं जीवित नहीं हूँ ऐसा मानकर अर्थात अपनी जान को हथेली पर लेकर सदा बड़े यत्न से राजा की सेवा करे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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