महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 330 श्लोक16-30

त्रिंशदधिकत्रिशततम (330) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 16-30 का हिन्दी अनुवाद


इसमें संदेह नहीं कि जीवन में सुख की अपेक्षा दुःख ही अधिक होता है। किंतु सीाी को मोहवश विषयों के प्रति अनुराग होता है और मृत्यु अप्रिय लगती है। जो मनुष्य सुख और दुःख दोनों की ही चिन्ता छोड़ देता है, वह अक्षय ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। विद्वान् पुरुष उसके लिये शोक नहीं करते। धन खर्च करते समय बड़ा दुःख होता है। उसकी रक्षा में भी सुख नहीं है और उसकी प्रापित भी बड़े कष्ट से होती है, अतः धन को प्रत्येक अवस्था में दुःखदायक समण्कर उसके नष्ट होने पर चिन्ता नहीं करनी चाहिये। मनुश्य धन का संग्रह करते-करते पहले की अपेक्षा ऊँची धन-सम्पन्न सिथति को प्राप्त होकर भी कभी तृप्त नहीं होते। वे और अधिक आशा लिये हुए ही मर जाते हैं; किंतु विद्वान पुरुष सदा संतुष्ट रहते हैं (वे धन की तृष्णा में नहीं पड़ते) संग्रह का अनत है विनाश। ऊँचे चढ़ने का अनत है नीचे गिरना। संयोग का अनत है वियोग और जीवन का अन्त है मरण। तृष्णा का कभी अन्त नहीं होता। संतोष ही परम सुख है, अतः पण्डितजन इस लोक में संतोष को ही उत्तम धन समझते हैं। आयु निरन्तर बीती जा रही है। वह पलभर भी ठहरती नहीं है। जब अपना शरीर ही अनित्य है, तब इस संसार की किस वसतु को नित्य समझा जाय। जो मनुष्य सब प्राणियों के भीतर मनउ से परे परमात्मा की स्थिति जानकर उन्हीं का चिंतन करते हैं, वे संसार-यात्रा समाप्त होने पर परमपद का साक्षात्कार करते हुए याोक के पार हो जाते हैं। जैसे जंगल में नयी-नयी घास की खोज में विचरते हुए अतृप्त पशु को सहसा व्याघ्र आकर दबोच लेता है, उसी प्रकार भोगों की खोज में लगे हुए अतृप्त मनुष्य को मृत्यु उठा ले जाती है। तथापि सबको दुःख से छूटने का उपाय अवश्य सोचना चाहिये। जो शोक छोड़कर साधन आरम्भ करता है और किसी व्यसन में आसक्त नहीं होता, वह निश्चय ही दुःखों से मुक्त हो जाता है। धनी हो या निर्धन, सबको उपभोगेाल में ही शब्द, स्पर्श, रूप, रस और उत्तम गन्ध आदि विषयों में किंचित् सुख की प्रतीति होती है, उसभोग के पश्चात् नहीं। प्राणियों के एक-दूसरे से संयोग होने के पहले काई दुःख नहीं रहता। जब संयोग केे बाद वियोग होता है तभी सबको दुःख हुआ करता है। अतः अपने स्वरूप में स्थित विवेकी पुरुष को किसी के वियोग में कभी भी शोक नहीं करना चाहिये। मनुष्य को चाहिये कि वह धैर्य के द्वारा शिश्न और उदर की, नेत्र के द्वारा हाथ और पैर की, मन के द्वारा आँख और कान की तािा सद्विद्या के द्वारा मन और वाणी की रक्षा करे। जो पूजनीय तथा अन्य मनुष्यों में आसकित को हटाकर विनीत भाव से विचरण करता है, वही सुखी और वही विद्वान है। जो अध्यात्म विद्या में अनुरक्त, कामनाशून्य तथा भोगासक्ति से दूर है, जो अकेला ही विचरण करता है, वह सुखी होता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में शुकदेव का ऊर्ध्वगमन विषयक तीन सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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