महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 275 श्लोक 17-33

पंचसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम (275) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्‍चसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 17-33 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद

जीव पहले तो इन्द्रियों द्वारा उनके अलग-अलग विषयों को प्रकाशित करता है, फिर मन से विचार करके बु्द्धि द्वारा उसका निश्‍चय करता है। बुद्धियुक्‍त जीव ही इन्द्रियों द्वारा उपलब्‍ध विषयों का निश्चित रूप से अनुभव करता है। अध्‍यात्‍म तत्त्वों का चिन्‍तन करने वाले पुरुष पाँच इन्द्रिय तथा चित्त, मन और आठवीं बुद्धि - इन आठों को ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं। हाथ, पैर, पायु और उपस्‍थ तथा पाँचवा मुख - ये स‍ब-के-सब कर्मेन्द्रिय कहे जाते हैं। तुम इनका भी विवरण सुनो। मुख इन्द्रिय का उपयोग बोलने और भोजन करने के लिये बताया जाता है। पैर चलने की और हाथ काम करने की इन्द्रियाँ हैं। पायु और उपस्‍थ- ये दो इन्द्रियाँ क्रमश: मल ओर मूत्र का त्‍याग करने के लिये हैं। इन दोनों के त्‍याग रूप कर्म समान ही हैं। इनमें पायु-इन्द्रिय मल का त्‍याग करती है और उपस्‍थ मैथुन के समय वीर्य का भी त्‍याग करता है। इसके सिवा छठी कर्मेन्द्रिय बल अर्थात प्राणसमूह है। इस प्रकार मैंने अपनी वाणी द्वारा तुम्‍हें समस्‍त इन्द्रियाँ और उनके ज्ञान, कर्म एवं गुण सुना दिये।

जब अपने-अपने कर्मों से थककर इन्द्रियाँ शान्‍त हो जाती है, तब इन्द्रियों का त्‍याग करके जीवात्‍मा सो जाता है। इन्द्रियों के उपरत हो जाने पर भी यदि मन निवृत न होकर विषयों का ही सेवन करता है तो उसे स्‍वप्‍नदर्शन की अवस्‍था समझना चाहिये। जो सात्त्विक, राजस और तामसभाव प्रसिद्ध है, वे ही जब भोग प्रदान करने वाले कर्मों से संयुक्‍त होते हैं, तब उन सात्त्विक आदि भावों की मनुष्‍य प्रशंसा करते हैं। आनंद, सुख, कर्मों की सिद्धि जाने की सामर्थ्‍य और उत्‍तम गति- ये चार सात्त्विक भाव हैं।

सात्त्विक पुरुष की स्‍मृति इन्‍हीं चार निमित्‍तों का आश्रय लेती है अर्थात सात्त्विक पुरुष जाग्रत काल की भाँति स्‍वप्‍न में भी आनंद आदि भावों का ही स्‍मरण करता है। इनमें भिन्‍न राजस और तामस- प्राणियों में से जिस किसी एक श्रेणी के जीवों में जो-जो भाव (वासनाएं), विधि (कर्मगति) का आश्रय लेकर स्थित हैं, उन्हीं भावों को उनकी स्‍मृति ग्रहण करती है। अर्थात जाग्रत और स्‍वप्‍न– दोनों ही अवस्‍थाओं में उन मनुष्‍यों को अपनी अपनी रुचि के अनुसार राजस और तामस पदा‍र्थों का सदा प्रत्‍यक्ष दर्शन होता है। पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, चित्‍त, मन बुद्धि, प्राण तथा सात्त्विक आदि तीन भाव- ये सत्रह गुण माने गये हैं। इनकी अधिकष्‍ठाता देहाभिमानी जीवात्‍मा अठारहवाँ हैं, जो इस शरीर के भीतर निवास करता है। उसे सनातन माना गया है। अथवा शरीर सहित वे सभी गुण देहधारियों के आश्रित रहते हैं। जब जीव का वियोग हो जाता है, तब शरीर और उसमें रहने वाले वे तत्त्व भी नहीं रह जाते। अथवा इन सबका सुदाय ही पाँचभौतिक शरीर है। एक महत्तत्त्व और जीवसहित पूर्वोंक्‍त अठारह गुण- ये सभी इस समुदाय के अन्‍तर्गत हैं। जठरानल के साथ-साथ उक्‍त तत्त्वों की गणना करने पर यह पाँचभौतिक संघात बीस तत्त्वों का समूह है। महत्‍तत्त्व प्राणवायु के साथ इस शरीर को धारण करता है यह वायु शरीर का भेदन करने में प्रभावशाली महत्‍तत्त्व का उपकरण मात्र है। जैसे इस जगत में घट आदि कोई वस्‍तु उत्‍पन्‍न होती और पिर नष्‍ट हो जाती है, उसी प्रकार प्रारब्‍ध, पुण्‍य और पाप का क्षय होने पर शरी पंचतत्त्व को प्राप्‍त हो जाता है तथा संचित पुण्‍य और पाप से प्रेरित हो जीव समयानुसार कर्मजनित दूसरे शरीर में प्रवेश करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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