महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 127 श्लोक 19-26

सप्‍तविंशत्‍यधिकशततम (127) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: सप्‍तविंशत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-26 का हिन्दी अनुवाद

उनको चिन्‍तन करते देख परम दुखी हुए नरेश दीनहृदय हो मन्‍द-मन्‍द वाणी में बारंबार इस प्रकार कहने लगे- ‘देवर्षे! कौन वस्‍तु दुर्लभ है? और आशा से भी बड़ा क्‍या है? यदि आपकी दृष्टि में यह बात मुझसे छिपाने योग्‍य नहीं तो आप इसे अवश्‍य बतावें’।

तब मुनि ने कहा- राजन! आपके उस पुत्र ने पहले कभी मूढ़ बुद्धि का आश्रय लेकर अपने दुर्भाग्‍य के कारण एक पूजनीय महर्षि का अपमान कर दिया था। राजन! वे उससे एक सुवर्णमय कलश और वल्‍कल माँग रहे थे। आपके पुत्र ने अवहेलना करके भी महर्षि की वह इच्‍छा पूरी नहीं की; इससे वे विग्र ऋषि अत्‍यन्‍त खिन्‍न और निराश हो गये थे। (ऋषभ कहते हैं-) नरश्रेष्ठ! उनके ऐसा कहने पर उन लोकपूजित महर्षि को प्रणाम करके धर्मात्‍मा राजा वीरद्युम्‍न तुम्‍हारे ही समान थककर शिथिल हो गये। तत्‍पश्‍चात उन महर्षि ने तपोवन में प्रचलित शिष्टाचार की विधि से राजा को पाद्य और अर्घ्‍य आदि सब वस्‍तुएँ अर्पित की। पुरुषसिंह! तब वे सभी मुनि नरश्रेष्ठ वीरद्युम्‍न को सब ओर से घेरकर उनके पास बैठ गये, मानो सप्‍तर्षि ध्रुव को चारों ओर से घेरकर शोभा पा रहे हों। उन सबने वहाँ उन अपराजित नरेश से उस आश्रम पर पधारने का सारा प्रयोजन पूछा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तगर्त राजधर्मानुशासनपर्व में ॠषभगीताविषयक एक सौ सताईसवां अध्‍याय पुरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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