महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 11 श्लोक 13-28

महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 11 श्लोक 13-28

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकादश अध्याय: श्लोक 13-28 का हिन्दी अनुवाद


वैदिक कर्म ही ब्राह्मण के लिये स्वर्ग लोक की प्राप्ति कराने वाले उत्तम मार्ग हैं। इसके सिवा, मुनियों ने समस्त कर्मों को वैदिक मंत्रों द्वारा ही सिद्ध होने वाला बताया है। वेद में इन कर्मों का प्रतिपादन दृढ़तापूर्वक किया गया है; इसलिये उन कर्मों के अनुष्ठान से ही यहाँ अभीष्ट-सिद्ध होती है। मास, पक्ष, ऋतु, सूर्य, चन्द्रमा और तारों से उपलक्षित जो यज्ञ होते हैं, उन्हें यथा सम्भव सम्पन्न करने की चेष्टा प्रायः सभी प्राणी करते हैं। यज्ञों का सम्पादन ही कर्म कहलाता है। जहाँ ये क्षेत्र है और यही सबसे महान् आश्रम है। जो मनुष्य कर्म की निन्दा करते हुए कुमार्ग का आश्रय लेते हैं, उन पुरुषार्थहीन मूढ़ पुरुषों को पाप लगता है। देव समूह और पितृसमूहों का यजन तथा ब्रह्मवंश (वेद शास्त्र आदि के स्वाध्याय द्वारा ऋषि-मुनियों) की तृप्ति- ये तीन ही सनातन मार्ग हैं। जो मूर्ख इनका परित्याग करके और किसी मार्ग से चलते हैं, वे वेदविरुद्ध पथ का आश्रय लेते हैं। मन्त्र दृष्टा ऋषि ने एक मन्त्र में कहा है कि 'यह यज्ञरूप कर्म तुम सब यजमानों द्वारा सम्पादित हो, परंतु यह होना चाहिये तपस्या से युक्त। तुम इसका अनुष्ठान करोगे तो मैं तुम्हें मनोवाच्छित फल प्रदान करूंगा।’ अतः उन-उन वैदिक कर्मों में पूर्णतः संलग्न हो जाना ही तपस्वी का 'तप’ कहलाता है।

हवन-कर्म के द्वारा देवताओं को, स्वाध्याय द्वारा ब्रह्मर्षियों को तथा श्राद्ध द्वारा सनातन पितरों को उनका भाग समर्पित करके गुरु जी परिचर्या करना दुष्कर व्रत कहलाता है। इस दुष्कर व्रतों का अनुष्ठान करके देवताओं ने उत्तम वैभव प्राप्त किया है। यह गृहस्थ धर्म का पालन ही दुष्कर व्रत है। मैं तुम लोगों से इसी दुष्कर व्रत का भार उठाने के लिये कह रहा हूँ। तपस्या श्रेष्ठ कर्म है। इसमें संदेह नहीं कि यही प्रजावर्ग का मूल कारण है। परंतु गार्हस्थ्यविधायक शास्त्र के अनुसार इस गार्हस्थ्य- धर्म में ही सारी तपस्या प्रतिष्ठित है। जिनके मन में किसी के प्रति ईर्ष्या नहीं है, जो सब प्रकार के द्वन्द्वों से रहित हैं, वे ब्राह्मण इसी को तप मानते हैं। यद्यपि लोक में व्रत को भी तप कहा जाता है, किंतु वह पंचयज्ञ के अनुष्ठान की अपेक्षा मध्यम श्रेणी का है। क्योंकि विघसाशी पुरुष प्रातः-सांयकाल विधि-विधान पद को अपने कुटुम्ब में अन्न का विभाग करके दुर्जय अविनाशी पद को प्राप्त कर लेते हैं। देवताओं, पितरों, अतिथियों तथा अपने परिवार के अन्य सब लोगों को अन्न देकर जो सबसे पीछे अवशिष्ट अन्न खाते हैं, उन्हें विघसाशी कहा गया है। इसलिये अपने धर्म पर आरूढ़ हो उत्तम व्रत का पालन और सत्यभाषण करते हुये वे जागद्गुरु होकर सर्वथा संदेह-रहित हो जाते हैं। वे ईर्ष्‍या रहित दुष्कर व्रत का पालन करने वाले पुण्यात्मा पुरुष इन्द्र के स्वर्ग लोक में पहुँचकर अनन्त वर्षों तक वहाँ निवास करते हैं।

अर्जुन कहते हैं- महाराज! वे ब्राह्मणकुमार पक्षि रूपधारी इन्द्र की धर्म और अर्थयुक्त हितकर बातें सुनकर इस निश्चय पर पहुँचे कि हम लोग जिस मार्ग पर चल रहे हैं, वह हमारे लिये हितकर नहीं है; अतः वे उसे छोड़कर घर लौट गये और गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए वहाँ रहने लगे। सर्वज्ञ नरश्रेष्ठ! अतः आप भी सदा के लिये धैर्य-धारण करके शत्रुहीन हुई इस सम्पूर्ण पृथ्वी का शासन कीजिये।


इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में अर्जुन के वचन के प्रसंग में ऋषियों और पक्षिरूपधारी इन्‍द्र के संवाद का वर्णन विषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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