महाभारत शल्य पर्व अध्याय 43 श्लोक 21-39

त्रिचत्वारिंश (43) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

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महाभारत: शल्य पर्व: त्रिचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद

‘स्त्रियां अपने योनि दोष जनित पाप (व्यभिचार) से राक्षसी हो जाती हैं। इसी प्रकार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों में से जो लोग ब्राह्मणों से द्वेष करते हैं, वे भी इस जगत में राक्षस होते हैं। ‘जो प्राणधारी मानव आचार्य, ऋत्विज, गुरु और वृद्ध पुरुषों का अपमान करते हैं, वे भी यहाँ राक्षस होते हैं। ‘अतः विप्रवरो! आप यहाँ हमारा उद्धार करें, क्योंकि आप लोग सम्पूर्ण लोकों का उद्धार करने में समर्थ हैं’।

उन राक्षसों का वचन सुन कर एकाग्रचित्त महर्षियों ने उनकी मुक्ति के लिये महानदी सरस्वती का स्तवन किया और इस प्रकार कहा- ‘जिस अन्न पर थूक पड़ गयी हो, जिस में कीड़े पड़े हों, जो जूठा हो, जिस में बाल गिरा हो, जो तिरस्कारपूर्वक प्राप्त हुआ हो, जो अश्रुपात से दूषित हो गया हो तथा जिसे कुत्तों ने छू दिया हो, वह सारा अन्न इस जगत में राक्षसों का भाग है। अतः विद्वान पुरुष सदा समझ-बूझ कर इन सब प्रकार के अन्नों का प्रयत्न पूर्वक परित्याग करे। जो ऐसे अन्न को खाता है, वह मानो राक्षसों का अन्न खाता है’। तदन्नतर उन तपोधन महर्षियों ने उस तीर्थ की शुद्धि करके उन राक्षसों की मुक्ति के लिये सरस्वती नदी से अनुरोध किया।

राजन! नरश्रेष्ठ! महर्षियों का यह मत जानकर सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती अपनी ही स्वरूपभूता अरुणा को ले आयी। महाराज! उस अरुणा में स्नान करके वे राक्षस अपना शरीर छोड़ कर स्वर्ग लोक में चले गये; क्योंकि वह ब्रह्म हत्या का निवारण करने वाली है। राजन! कहते हैं, इस बात को जान कर देवराज इन्द्र उसी श्रेष्ठ तीर्थ में स्नान करके ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त हुए थे।

जनमेजय ने पूछा- ब्रह्मन! भगवान इन्द्र को ब्रह्म हत्या का पाप कैसे लगा तथा वे किस प्रकार इस तीर्थ में स्नान करके पाप मुक्त हुए थे?

वैशम्पायन जी ने कहा- जनेश्वर! पूर्व काल में इन्द्र ने नमुचि के साथ अपनी की हुई प्रतिज्ञा को जिस प्रकार तोड़ डाला था, वह सारी कथा जैसे घटित हुई थी, तुम यथार्थ रूप से सुनो। पहले की बात है, नमुचि इन्द्र के भय से डर कर सूर्य की किरणों में समा गया था। तब इन्द्र ने उसके साथ मित्रता कर ली और यह प्रतिज्ञा की ‘असुरश्रेष्ठ! मैं न तो तुम्हें गीले हथियार से मारूंगा न सूखे से। न दिन में मारूंगा ना रात में। सखे! मैं सत्य की सौगन्ध खाकर यह बात तुम से कहता हूं’। राजन! इस प्रकार प्रतिज्ञा करके भी देवराज इन्द्र ने चारों ओर कुहासा छाया हुआ देख पानी के फेन से नमुचि का सिर काट लिया। नमुचि का वह कटा हुआ मस्तक इन्द्र के पीछे लग गया। वह उनके पास जाकर बारंबार कहने लगा, ‘ओ मित्रघाती पापात्मा इन्द्र! तू कहाँ जाता है?’। इस प्रकार उस मस्तक के द्वारा बारंबार पूर्वोक्त बात पूछी जाने पर अत्यन्त संतप्त हुए इन्द्र ने ब्रह्मा जी से यह सारा समाचार निवेदन किया। तब लोकगुरु ब्रह्मा ने उनसे कहा- ‘देवेन्द्र! अरुणा तीर्थ पाप भय को दूर करने वाला है। तुम वहाँ विधिपूर्वक यज्ञ करके अरुणा के जल में स्नान करो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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