महाभारत विराट पर्व अध्याय 4 श्लोक 32-47

चतुर्थ (4) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 32-47 का हिन्दी अनुवाद


‘मैं शूरवीर हूँ अथवा बड़ा बुद्धिमान हूँ’, ऐसा घमंड न करे। जो सदा राजा को प्रिय लगने वाले कार्य को करता है, वही उसका प्रेमपात्र तथा ऐश्वर्यभोग से प्रसन्न रहता है। राजा से दुर्लभ ऐश्वर्य तथा प्रिय भोग प्राप्त होने पर मनुष्य सदा सावधान होकर उसके प्रिय एवं हितकर कार्यों में संलग्न रहे। जिसका क्रोध बड़ा भारी संकट उपस्थित कर देता है और जिसकी प्रसन्नता महान् फल-ऐश्वर्य-भोग देने वाली है, उस राजा का कौन बुद्धिमान पुरुष मन से भी अनिष्ट साधन करना चाहेगा? राजा के समक्ष अपने दोनों हाथ, ओठ और घुटनों को व्यर्थ न हिलावें; बकवाद न करें। सदा शनैः शनैः बोलें। धीरे से थूकें और दूसरों को पता न चले, इस प्रकार अधोवायु छोड़ें। किसी दूसरे व्यक्ति के सम्बन्ध में कोई हास्यजनक वस्तु दिखायी दे, तो अधिक हर्ष न प्रकट करे एवं पागलों की तरह अट्टहास न करे तथा अत्यन्त धैर्य के कारण जड़वत् निष्चेष्ट हाकर भी न रहे। इससे वह गौरव (सम्मान) को प्राप्त होता है।

मन में प्रसन्नता होने पर मुख से मृदुल (मन्द) मुस्कान का ही प्रदर्शन करे। जो अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति होने पर (अधिक) हर्षित नहीं होता अथवा अपमानित होने पर अधिक व्यथा का अनुभव नहीं करता और सदा मोहशून्य होकर विवेक से काम लेता है, वही राजा के यहाँ सुखपूर्वक रह सकता है। जो बुद्धिमान सचिव सदा राजा अथवा राजकुमार की प्रशंसा करता रहता है, वही राजा के यहाँ उसका प्रीतिपात्र होकर टिक सकता है। यदि कोई मन्त्री पहले राजा का कृपा पात्र रहा हो और पीछे से अकारण उसे दण्ड भोगना पड़ा हो, उस दशा में भी जो राजा की निन्दा नहीं करता, वह पुनः अपने पूर्व वैभव को प्राप्त कर लेता है। जो बुद्धिमान राजा के आश्रित रहकर जीवन निर्वाह अथवा उसके राज्य में निवास करता है, उसे राजा के सामने अथवा पीठ पीछे भी उसके गुणों की ही चर्चा करनी चाहिये। जो मन्त्री राजा को बलपूर्वक अपने अधीन करना चाहता है, वह अधिक समय तक अपने पद पर नहीं टिक सकता। इतना ही नही, उसके प्राणों पर भी संकट आ जाता है।

अपनी भलाई अथवा लाभ देखकर दूसरे को सदा राजा के साथ न मिलावे; न बातचीत करावे। उपयुक्त स्थान और अवसर देखकर सदा राजा की विशेषता प्रकट करे। जो उत्साहसम्पन्न, बुद्धि-बल से युक्त, शूरवीर, सत्यवादी, कोमल स्वभाव और जितेन्द्रिय होकर सदा छाया की भाँति राजा का अनुसरण करता है, वही राजदरबार में टिक सकता है। जब दूसरे को किसी कार्य के लिये भेजा जा रहा हो, उस समय जो स्वयं ही उठकर आगे आये और पूछे- ‘मेरे लिये क्या आज्ञा है’, वही राजभवन में निवास कर सकता है। जो राजा के द्वारा आन्तरिक (धन एवं स्त्री आदि की रक्षा) और बाह्य (शत्रुविजय आदि) कार्यों के लिये आदेश मिलने पर कभी शंकित या भयभीत नहीं होता, वही राजा के यहाँ रह सकता है। जो घर-बार छोड़कर परदेश में रहने पर भी प्रियजनों एवं अभीष्ट भोगों का स्मरण नहीं करता और कष्ट सहकर सुख पाने की इच्छा करता है, वही राजदरबार में टिक सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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