त्र्यशीतितम (83) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: त्र्यशीतितम अध्याय: श्लोक 122-144 का हिन्दी अनुवाद
इस प्रकार स्तुति करके ऋषि ने फिर महादेव जी से कहा- ‘महादेव! आपकी कृपा से मेरी तपस्या नष्ट न हो।’ तब महादेव जी ने प्रसन्नचित्त हो महर्षि से कहा- ‘ब्रहान्! मेरे प्रसाद से आपकी तपस्या हजार गुनी बढ़े। महामुने! मैं तुम्हारे साथ इस आश्रम में रहूंगा। जो सप्तसारस्वत तीर्थ में स्नान करके मेरी पूजा करेंगे, उनके लिये इहलोक और परलोक में कोई भी वस्तु दुलर्भ नहीं होगी। इतना ही नहीं, वे सरस्वती के लोक में जायेंगे, इसमें संशय नहीं है।’ एंसा कहकर महादेव जी वहीं अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर तीनों लोकों के विख्यात औशनस तीर्थ की यात्रा करे, जहाँ ब्रह्मा आदि देवता तथा तपस्वी ऋषि रहते हैं। भारत! शुक्राचार्य जी का प्रिय करने के लिये भगवान् कार्तिकेय भी वहाँ सदा तीनों संध्याओं के समय उपस्थित रहते हैं। कपालमोचनतीर्थ सब पापों से छुड़ाने वाला है! नरश्रेष्ठ! वहाँ स्नान करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। नरश्रेष्ठ! वहाँ से अग्नितीर्थ को जाये। उसमें स्नान करने से मनुष्य अग्निलोक में जाता और अपने कुल का उद्धार कर देता हैं। भरतसत्तम! वहीं विश्वामित्रतीर्थ है। नरश्रेष्ठ! वहाँ स्नान करने से ब्राह्मणत्व की प्राप्ति होती है। नरश्रेष्ठ! ब्रह्मयोनि तीर्थ में जाकर पवित्र एवं जितात्मा पुरुष वहाँ स्नान करने से ब्रह्मलोक प्राप्त कर लेता है। साथ ही, अपने कुल की सात पीढ़ियों तक को पवित्र कर देता है, इसमें संशय नहीं है। राजेन्द्र! तदनन्तर कार्तिकेय के त्रिभुवनविख्यात पृथूदक तीर्थ की यात्रा करे और वहाँ स्नान करके देवताओं तथा पितरों की पूजा में संलग्न रहे। भारत! स्त्री हो या पुरुष, उसने मानव-बुद्धि से अनजान में या-जानबूझकर जो कुछ भी पापकर्म किया है, वह सब पृथूदकतीर्थ में स्नान करने मात्र से नष्ट हो जाता है और तीर्थसेवी पुरुष को अश्वमेध यज्ञ के फल एवं स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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