महाभारत वन पर्व अध्याय 32 श्लोक 36-52

द्वात्रिंश (32) अध्‍याय: वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 36-52 का हिन्दी अनुवाद


क्योंकि पूर्वकृत प्रारब्ध कर्म प्रभाव डालने वाला न होता तो मनुष्य जिस-जिस प्रयोजन के अभिप्राय से कर्म करता, वह सब सफल ही हो जाता। अतः जो लोग अर्थसिद्धि तथा अनर्थ की प्राप्ति में दैव, हठ और स्वभाव-इन तीनों को कारण नहीं समझते, वे वैसे ही हैं, जैसे की साधारण अज्ञ लोग होते हैं। किंतु मनुष्य का सिंद्धान्त है कि कर्म करना ही चाहिये, जो बिल्कुल कर्म छोड़कर निश्चेष्ट हो बैठे रहता है, वह पुरुष पराभव को प्राप्त होता है। (इसलिये मेरा तो कहना यह है कि) महाराज युधिष्ठिर! कर्म करने वाले पुरुष को यहाँ प्रायः फल की सिद्धि प्राप्त होती ही है। परन्तु जो आलसी है, जिसके ठीक-ठीक कर्तव्य का पालन नहीं हो पाता, उसे कभी फल की सिद्धि नहीं प्राप्त होती। यदि कर्म करने पर भी फल की उत्पत्ति न हो तो कोई-न-कोई कारण है, ऐसा मानकर प्रायश्चित (उसके दोष के समाधान) पर दृष्टि डाले।

राजेन्द्र! कर्म की सांगोपांग कर लेने पर कर्ता उऋण (निर्दोष) हो जाता है। जो मनुष्य आलस्य के वश में पड़कर सोता रहता है, उसे दरिद्रता प्राप्त होती है और कार्यकुशल मानव निश्चय ही अभीष्ट फल पाकर ऐश्वर्य का उपभोग करता है। कर्म का फल होगा या नहीं, इस संशय में पड़े हुए मनुष्य अर्थसिद्धि से वंचित रह जाते हैं और जो संशयरहित हैं, उन्हें सिद्धि प्राप्त होती है। कर्मपरायण और संशयरहित धीर मनुष्य निश्चय ही कहीं बिरले देखे जाते हैं। इस समय हम लोगों पर राज्यापहरणरूप भारी विपद् आ पड़ी है, यदि आप कर्म (पुरुषार्थ) में तत्परता से लग जायें तो निश्चय ही यह आपत्ति टल सकती है अथवा यदि कार्य की सिद्धि ही हो जाये, तो वह आपके, भीमसेन और अर्जुन के साथ नकुल-सहदेव के लिये भी विशेष गौरव की बात होगी।

कर्मो के कर लेने पर अन्त में कर्ता को जैसा फल मिलता है, उसके अनुसार ही यह जाना जा सकता है कि दूसरों का कर्म सफल हुआ है या हमारा। किसान हल से पृथ्वी को चीरकर उसमें बीज बोता है और फिर चुपचाप बैठा रहता है; क्योंकि उसे सफल बनाने में मेघ कारण हैं। यदि वृष्टि ने अनुग्रह नहीं किया तो उसमें किसान का कोई दोष नहीं है। वह किसान मन-ही-मन यह सोचता है कि दूसरे लोग जोतने-बोने का जो सफल कार्य जैसे करते हैं, वह सब मैंने भी किया है। उस दशा में यदि मुझे ऐसा प्रतिकूल फल मिला तो इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है-ऐसा विचार करके उस असफलता के लिये वह बुद्धिमान् किसान अपनी निंदा नहीं करता।

भारत! पुरुषार्थ करने पर यदि अपने को सिद्धि न प्राप्त हो तो इस बात को लेकर मन-ही-मन खिन्न नहीं होना चाहिये; क्योंकि फल की सिद्धि में पुरुषार्थ के सिवा दो और भी कारण हैं-प्रारब्ध और ईश्वर कृपा। महाराज! कार्य में सिद्धि प्राप्त होगी या असिद्धि, ऐसा संदेह मन में लेकर आप कर्म में प्रवृत्त ही न हों, यह उचित नहीं हैं; क्योंकि बहुत-से कारण एकत्र होने पर ही कर्म में सफलता मिलती है। कर्मों में किसी अंग की कमी रह जाने पर थोड़ा फल हो सकता है। यह भी सम्भव है कि फल हो ही नहीं। परन्तु कर्म का आरम्भ ही न किया जाये, तब तो न कहीं फल दिखायी देगा और न कर्ता का कोई गुण (शौर्य आदि) ही दृष्टिगोचर होगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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