महाभारत वन पर्व अध्याय 310 श्लोक 18-34

दशाधिकत्रिशततम (310) अध्‍याय: वन पर्व (कुण्डलाहरणपर्व)

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महाभारत: वन पर्व: दशाधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद


इन्द्र बोले- कर्ण जब मैं तुम्हारे पास आ रहा था, उसके पहले ही सूर्यदेव को यह बात मालूम हो गयी थी। इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने ही तुमसे सारी बातें बता दी हैं। तात कर्ण! तुम्हारी रुचि के अनुसार इन वस्तुओं का परिवर्तन ही हो जाये। मेरे वज्र को छोड़कर तुम जो चाहो, वही आयुध मुझसे माँग लो।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तब कर्ण अत्यन्त प्रसन्न होकर देवराज इन्द्र के पास गया और सफल मनोरथ होकर उसने उनकी अमोघ शक्ति माँगी। कर्ण बोला- 'वासव! मेरे कवच और कुण्डल लेकर आप मुझे अपनी वह अमोघ शक्ति प्रदान कीजिये, जो सेना के अग्रभाग में शत्रुसमुदाय का संहार करने वाली है।' राजन्! तब इन्द्र ने शक्ति के विषय में दो घड़ी तक मन-ही-मन विचार करके कर्ण से इस प्रकार कहा- ‘कर्ण! तुम मुझे अपने दोनों कुण्डल और सहज कवच दे दो और मेरी यह शक्ति ग्रहण कर लो। इसी शर्त के अनुसार हम लोगों में इन वस्तुओं का विनिमय (बदला) हो जाये। सूतसूदन! दैत्यों का संहार करते समय मेरे हाथ से छूटने पर यह अमोघ शक्ति सैंकड़ों शत्रुओं को मार देती है और पुनः मेरे हाथ में चली आती है। वही शक्ति तुम्हारे हाथ में जाकर किसी एक तेजस्वी, ओजस्वी, प्रतापी तथा गर्जना करने वाले शत्रु को मार के पुनः मेरे पास आ जायेगी’।

कर्ण बोला- देवेन्द्र! मैं महासमर में अपने एक ही शत्रु को मारना चाहता हूँ, जो बहुत गर्जना करने वाला और प्रतापी है तथा जिससे मुझे हमेशा भय बना रहता है।

इन्द्र ने कहा- कर्ण! तुम (इस शक्ति से) रणभूमि में गर्जना करने वाले किसी एक बलवान शत्रु को मार सकोगे, परंतु इस समय तुम जिस एक शत्रु को लक्ष्य करके यह अमोघ शक्ति माँग रहे हो, वह तो उन परमात्मा द्वारा सुरक्षित है, जिन्हें वेदवेत्ता विद्वान् पुरुषोत्तम अपराजित, हरि तथा अचिन्त्यस्वरूप नारायण कहते हैं। वे स्वयं श्रीकृष्ण हैं, जिनके द्वारा उस वीर की रक्षा हो रही है।

कर्ण बोला- 'भगवन्! ऐसा ही हो। तो भी आप एक वीर के वध के लिये मुझे अपनी अमोघ शक्ति दे दीजिये, जिससे मैं अपने प्रतापी शत्रु का वध कर सकूँ। में आपको अपने शरीर से उघेड़कर कवच और कुण्डल तो दे दूँगा; परंतु उस समय मेरे अंगों के कट जाने पर मेरा स्वरूप वीभत्स न होना चाहिये।'

इन्द्र ने कहा- कर्ण! तुम्हारा स्वरूप किसी प्रकार भी वीभत्स नहीं होगा। तुम्हारे अंगों में घाव तक नहीं होगा। क्योंकि तुम असत्य की इच्छा नहीं रखते हो। वक्ताओं में श्रेष्ठ कर्ण! तुम्हारे पिता का जैसा वर्ण और तेज है, वैसे ही वर्ण और तेज से तुम पुनः सम्पन्न हो जाओगे। जब तक तुम्हारे पास दूसरे शस्त्र रहें और प्राणसंकट की परिस्थिति न आ जाये, तब तक तुम यदि प्रमादवश यह अमोघ शक्ति यों ही किसी शत्रु पर छोड़ दोगे, तो यह उसे न मारकर तुम्हारे ही ऊपर आ पड़ेगी।

कर्ण बोला- 'देवेन्द्र! आप जैसा मुझसे कह रहे हैं, उसके अनुसार प्राणसंकट की अवस्था में पड़कर ही मैं आपकी दी हुई इस शक्ति का उपयोग करूँगा, यह मैं आपसे सच्ची बात कहता हूँ।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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