सद्वाविंशत्यधिकद्विशततम (222) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: द्वाविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 16-32 का हिन्दी अनुवाद
उस समुद्र के भीतर नाना स्थानों में विचरण एवं भ्रमण करते हुए सह अग्नि ने इसी प्रकार विविध भाँति के बहुत-से वेदोक्त अग्निदेवों तथा उनके स्थानों को उत्पन्न किया। सिंधुनद, पंचनद, देविका, सरस्वती, गंगा, शतकुम्भा, सरयू, गण्डकी, चर्मण्वती, मही, मेध्या, मेधातिथि, ताम्रवती, वेत्रवती, कौशिकी, तमसा, नर्मदा, गोदावरी, वेणा, उपवेणा, भीमा, वडवा, भारती, सुप्रयोगा, कावेरी, मुर्मुरा, तुंगवेणा, कृष्णवेणा, कपिला तथा शोणभद्र- ये सब नदियां और नद हैं, जो अग्नियों के उत्पत्ति स्थान कहे गये हैं। अद्भुत की जो प्रियतमा पत्नी है, उसके गर्भ से उनके ‘विभूरसि’ नामक पुत्र हुआ। अग्नियों की जितनी संख्या बतायी गयी है, सोमयागों की भी उतनी ही है। वे सब अग्नि ब्रह्माजी के मानसिक संकल्प से अन्नि के वंश में उनकी संतानरूप से उत्पन्न हुए हैं। अत्रि को जब प्रजा की सृष्टि करने की इच्छा हुई, तब उन्होंने उन अग्नियों को ही अपने हृदय में धारण किया। फिर उन ब्रह्मर्षि के शरीर से विभिन्न अग्नियों का प्रादुर्भाव हुआ। राजन्! इस प्रकार मैंने इन अप्रमेय, अन्धकार निवारक तथा दीप्तिमान् महामना अग्नियों की जिस क्रम से उत्पत्ति हुई है, उसका तुमसे वर्णन किया। वेदों में ‘अद्भुत’ नामक अग्नि के माहात्म्य का जैसा वर्णन है, वैसा ही सब अग्नियों का समझना चाहिये: क्योंकि इन सब में एक ही अग्नितत्व विद्यमान है। ये प्रथम भगवान अग्नि, जिन्हें अंगिरा भी कहते हैं, एक ही हैं, ऐसा जानना चाहिये। जैसे ज्योतिष्टोम यज्ञ उद्भिद् आदि अनेक रूपों में प्रकट हुआ है, उसी प्रकार एक ही अग्नितत्व प्रजापति के शरीर से विविध रूपों में उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार मेरे द्वारा अग्नि देव के महान् वंश का प्रतिपादन किया गया। वे भगवान अग्नि विविध वेदमन्त्रों द्वारा पूजित होकर देहधारियों के दिये हुए हविष्य को देवताओं के पास पहुँचाते हैं।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में आंगिरसोपाख्यान विषयक अग्निप्रादुर्भाव सम्बन्धी दो सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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