महाभारत वन पर्व अध्याय 149 श्लोक 19-40

एकोनपंचाशदधिकशततम (149) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: सप्तचत्वारिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 19-40 का हिन्दी अनुवाद


उस समय परब्रह्म ही सबके एकमात्र आश्रय थे। उन्हीं की प्राप्ति के लिये सदाचार का पालन किया जाता था। सब लोग एक परमात्मा का ही ज्ञान प्राप्त करते थे। समस्त वर्णों के मनुष्य परब्रह्म परमात्मा के उदेश्य से ही समस्त सत्कर्मों का अनुष्ठान करते थे और उस प्रकार उन्हें उत्तम धर्म-फल की प्राप्ति होती थी। सब लोग सदा एक परमात्मा देव में ही चित्त लगाये रहते थे। सब लोग एक परमात्मा के ही नाम का जाप और उन्हीं की सेवा-पूजा किया करते थे। सब के वर्णाश्रमानुसार पृथक्-पृथक् धर्म होने पर भी वे एकमात्र वेद को ही मानने वाले थे और एक ही सनातन धर्म के अनुयायी थे। सत्ययुग के लोग समय-समय पर किये जाने वाले चार आश्रम-सम्बन्धी सत्कर्मों का अनुष्ठान करके कर्मफल की कामना और आसक्ति न होने के कारण परमगति प्राप्त कर लेते थे।

चित्तवृत्तियों को परमात्मा में स्थापित करके उनके साथ एकता की प्राप्ति कराने वाला यह योग नामक धर्म सत्ययुग का सूचक है। सत्ययुग में चारों वर्णों का यह सनातन धर्म चारों चरणों से सम्पन्न-सम्पूर्ण रूप से विद्यमान था। यह तीनों गुणों से रहित सत्ययुग का वर्णन हुआ। अब त्रेता का वर्णन सुनो, जिसमें यज्ञ-कर्म का आरम्भ होता है। उस समय धर्म के एक चरण का ह्रास हो जाता है और भगवान् अच्युत का स्वरूप लाल वर्ण का हो जाता है। लोग सत्य में तत्पर रहते हैं। शास्त्रोक्त यज्ञक्रिया तथा धर्म के पालन में परायण रहते हैं। त्रेतायुग में ही यज्ञ, धर्म तथा नाना प्रकार के सत्कर्म आरम्भ होते हैं। लोगों को अपनी भावना तथा संकल्प के अनुसार वेदोक्त कर्म तथा दान आदि के द्वारा अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। त्रेतायुग के मनुष्य तप और दान में तत्पर रहकर अपने धर्म से कभी विचलित नहीं होते थे। सभी स्वधर्मपरायण तथा क्रियावान् थे। द्वापर में हमारे धर्म के दो ही चरण रह जाते हैं, उस समय भगवान् विष्णु का स्वरूप पीले वर्ण का हो जाता है और वेद (ऋक्, यजु; साम और अथर्व- इन) चार भागों में बंट जाता है।

उस समय कुछ द्विज चार वेंदों के ज्ञाता, कुछ तीन वेदों के विद्वान, कुछ दो ही वेदों के जानकर, कुछ एक ही वेद के पण्डित और कुछ वेद की ऋचाओं के ज्ञान से सर्वथा शून्य होते हैं। इस प्रकार भिन्न-भिन्न शास्त्रों के होने से उनके बताये हुए कर्मों में भी अनेक भेद हो जाते हैं तथा प्रजा तप और दान-इन दो ही धर्मों में प्रवृत होकर राजसी हो जाती है। द्वापर में सम्पूर्ण एक वेद का भी ज्ञान न होने से वेद के बहुत-से विभाग कर लिये गये हैं। इस युग में सात्त्विक बुद्धि का क्षय होने से कोई विरला ही सत्य में स्थित होता है। सत्य से भ्रष्ट होने के कारण द्वापर के लोगों में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। उनके मन में अनेक प्रकार की कामनाएं पैदा होती है^ और वे बहुत-सी दैवी उपद्रवों से भी पीड़ित हो जाते हैं। उन सबसे अत्यन्त पीड़ित होकर लोग तप करने लगते हैं। कुछ लोग भोग और स्वर्ग की कामना से यज्ञों का अनुष्ठान करते हैं। इस प्रकार द्वापर युग के आने पर अधर्म के कारण प्रजा क्षीण होने लगती है। तत्पश्चात् कलियुग का आगमन होता है।

कुन्तीनन्दन! कलियुग में धर्म एक ही चरण से स्थित होता है। इस तमोगुण युग को पाकर भगवान विष्णु के श्रीविग्रह का रंग काला हो जाता है। वैदिक सदाचार, धर्म तथा यज्ञ-कर्म नष्ट हो जाते हैं। ईति, व्याधि, आलस्य, क्रोध आदि दोष, मानसिक रोग तथा भूख-प्यास का भय- ये सभी उपद्रव बढ़ जाते हैं। युगों के परिवर्तन होने पर आने वाले युगों के अनुसार धर्म का भी ह्रास होता जाता है। इस प्रकार धर्म के क्षीण होने से लोक की सुख-सुविधा का भी क्षय होने लगता है। लोक के क्षीण होने पर उसके प्रवर्तक भावों का भी क्षय हो जाता है। युग-क्षयजनित धर्म मनुष्‍य की अभीष्ट कामनाओं के विपरीत फल देते हैं। यह कलियुग का वर्णन किया गया, जो शीघ्र ही आने वाला है। चिरजीवी लोग भी इस प्रकार युग का अनुसरण करते हैं। शत्रुदमन! तुम्हें मेरे पुरातन स्वरूप को देखने या जानने के लिये जो कौतूहल हुआ है, वह ठीक नहीं हैं। किसी भी समझदार मनुष्‍य का निरर्थक विषयों के लिये आग्रह क्यों होना चाहिये? महाबाहो! तुमने युगों की संख्या के विषय में मुझसे जो प्रश्न किया है, उसके उत्‍तर में मैंने यह सब बातें बतायी हैं। तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम लौट जाओ।'


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में कदलीवन के भीतर हनुमान जी और भीमसेन का संवाद विषयक एक सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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