पंचत्रिंशदधिकशततम (135) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: पंचत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 52-60 का हिन्दी अनुवाद
‘मरणधर्मा मनुष्य किसी तरह दैव के विधान का उल्लंघन नहीं कर सकता, तभी तो धनुषाक्ष ने उस बालक की आयु के निमित्तभूत पर्वतों का भैंसों द्वारा भेदन करा दिया’। इस प्रकार बालक तपस्वी वर पाकर घमण्ड में भर जाते हैं और (अपने दुर्व्यवहारों के कारण) शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।) तुम्हारी भी यही अवस्था न हो (इसलिये सावधान किये देता हूं)। ये रैभ्य मुनि महान शक्तिशाली हैं। इनके दोनों पुत्र भी इन्हीं कि समान हैं। बेटा! तुम उन रैभ्य मुनि के पास कदापि न जाना और आलस्य छोड़कर इसके लिये सदा प्रयत्नशील रहना। बेटा! तुम्हें सावधान करने का कारण यह है कि शक्तिशाली तपस्वी महर्षि रैभ्य बड़े क्रोधी हैं। वे कुपित होकर रोष से तुम्हें पीड़ा दे सकते हैं। यवक्रीत बोले- पिताजी! मैं ऐसा ही करूँगा, आप किसी तरह मन में संताप न करें। जैसे आप मेरे माननीय हैं, वैसे ही रैभ्य मुनि मेरे लिये पिता के समान हैं। लोमश जी कहते है- युधिष्ठिर! पिता से यह मीठी बातें कहकर यवक्रीत निर्भय विचरने लगे। दूसरे ऋषियों को सताने में उन्हें अधिक सुख मिलता था। वैसा करके वे बहुत संतुष्ट रहते थे।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में यवक्रीतोपाख्यान विषयक एक सौ पैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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