महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 95 श्लोक 44-64

पंचनवतितम (95) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: पंचनवतितम अध्याय: श्लोक 44-64 का हिन्दी अनुवाद


समरभूमि में अपनी ओर आते हुए उस हाथी को गजराज सुप्रतीक ने उसी प्रकार रोक दिया, जैसे तट की भूमि समुद्र को आगे बढ़ने से रोके रहती है। महामना दशार्ण नरेश गजराज को रोका गया देख समस्त पाण्डव सैनिक भी साधु-साधु कहकर सुप्रतीक की प्रशंसा करने लगे। नृपश्रेष्ठ! तदनन्तर प्राग्ज्योतिष नरेश ने कुपित होकर दशार्णनरेश के हाथी को सामने से चौदह तोमर मारे। जैसे सर्प बाँबी में प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार वे तोमर हाथी पर पड़े हुए सुवर्णभूषित श्रेष्ठ कवच को छिन्न-भिन्न करके शीघ्र ही उसके शरीर में घुस गये। भरतश्रेष्ठ! उन तोमरों से अत्यन्त घायल हो वह हाथी व्यथित हो उठा। उसका सारा मद उतर गया और वह बड़े वेग से पीछे की ओर लौट पड़ा। जैसे वायु अपनी शक्ति से वृक्षों को उखाड़ फेंकती है, उसी प्रकार वह हाथी भयानक स्वर में चिंग्घाड़ता और अपनी ही सेना को रौंदता हुआ बड़े वेग से भाग चला।

उस हाथी के पराजित हो जाने पर भी पाण्डव महारथी उच्च स्वर से सिंहनाद करके युद्ध के लिये ही खड़े रहे। तत्पश्चात् पाण्डव सैनिक भीमसेन को आगे करके नाना प्रकार के बाणों तथा अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करते हुए भगदत्त पर टूट पड़े। राजन्! क्रोध में भरकर आक्रमण करने वाले, अमर्षशील उन पाण्डवों का वह घोर सिंहनाद सुनकर महाधनुर्धर भगदत्त ने अमर्षवश बिना किसी भय के अपने हाथी को उनकी ओर बढ़ाया। उस समय उनके अंकुशों और पैर के अँगूठों से प्रेरित हो वह गजराज युद्धस्थल में संवर्तक[1] अग्नि की भाँति भयंकर हो उठा। उस हाथी ने अत्यन्त कुपित होकर रथ के समूहों, हाथियों, घुड़सवारों सहित घोड़ों तथा सैकड़ों-हजारों पैदल सिपाहियों को भी समरांगण में इधर-उधर दौड़ते हुए रौंद डाला। महाराज! उस हाथी के द्वारा आलोडित होकर पाण्डवों की वह विशाल सेना आग पर रखे हुए चमड़े की भाँति संकुचित हो गयी।

बुद्धिमान भगदत्त के द्वारा अपनी सेना में भगदड़ पड़ी हुई देख घटोत्कच ने अत्यन्त कुपित होकर भगदत्त पर धावा किया। राजन्! उस समय वह अत्यन्त भयानक रूप बनाकर रोष से प्रज्वलित सा हो उठा। उसकी आकृति विकट एवं निष्ठुर दिखायी देती थी तथा मुख और नेत्र उज्ज्वल एवं प्रकाशित हो रहे थे। उस महाबली निशाचर ने हाथी को मार डालने की इच्छा से एक निर्मल त्रिशूल हाथ में लिया, जो पर्वतों को भी विदीर्ण करने वाला था। फिर सहसा उसे चला दिया। वह त्रिशूल चारों ओर से आग की चिनगारियों के समूह से घिरा हुआ था। उसे सहसा अपने ऊपर आते देख प्राग्ज्योतिषपुर के नरेश भगदत्त ने अत्यन्त भयंकर तीक्ष्ण और सुन्दर एक अर्धचन्द्राकार बाण चलाया। उन वेगवान नरेश ने उक्त बाण के द्वारा उस महान त्रिशूल को काट डाला। वह सुवर्णभूषित त्रिशूल दो टुकड़ों में कटकर ऊपर की ओर उछला। उस समय वह इन्द्र के हाथ से छूटकर आकाश में गिरते हुए महान वज्र के समान सुशोभित हुआ। त्रिशूल को दो टुकड़ों में कटकर गिरा हुआ देख राजा भगदत्त ने आग की लपटों से वेष्टित तथा सुवर्णमय दण्ड से विभूषित एक महाशक्ति हाथ में ली और उसे राक्षस पर चला दिया। फिर वे बोले- 'खड़ा रह, खड़ा रह'।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रलयकाल की अग्नि का नाम संवर्तक है।

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