महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 43 श्लोक 56-72

त्रिचत्वारिंश (43) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: त्रिचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 56-72 का हिन्दी अनुवाद


पुरुष अर्थ का दास है। अर्थ किसी का दास नहीं है। महाराज! यह सच्ची बात है मैं कौरवों के द्वारा अर्थ से बंधा हुआ हूँ। इसीलिये आज नपुंसक की तरह तुमसे पूछता हूँ कि तुम युद्ध के सिवा और क्या चाहते हो? मै दुर्योधन के लिये युद्ध करुंगा; परन्तु जीत तुम्हारी ही चाहूंगा। युधिष्ठिर बोले- ब्रह्मन! आप मेरी विजय चाहे और मेरे हित की सलाह देते रहें; युद्ध दुर्योधन की ओर से ही करें। यही वर मैंने आप से मांगा है। द्रोणाचार्य ने कहा- राजन! तुम्हारी विजय तो निश्चित है; क्योंकि साक्षात भगवान श्रीकृष्ण तुम्हारे मंत्री हैं। मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं, तुम युद्ध में शत्रुओं को उनके प्राणों से विमुक्त कर दोगे। यहाँ धर्म है, यहाँ श्रीकृष्ण है और जहाँ श्रीकृष्ण है, वही विजय है। कुन्तीकुमार! जाओ, युद्ध करो। और भी पूछो, तुम्हें क्या बताऊँ।

युधिष्ठिर बोले- द्विजश्रेष्ठ! मैं आपसे पूछता हूँ। आप मेरे मनोवांछित प्रश्नों को सुनिये। आप किसी से भी परास्त होने वाले नहीं हैं; फिर आपको मैं युद्ध में कैसे जीत सकुंगा? द्रोणाचार्य बोले- राजन! मैं जब तक समरभूमि मैं युद्ध करुंगा, तब तक तुम्हारी विजय नहीं हो सकती। तुम अपने भाईयों सहित ऐसा प्रयत्न करो, जिससे शीघ्र मेरी मृत्यु हो जाये। युधिष्ठिर बोले- महाबाहु आचार्य! इसलिये अब आप अपने वध का उपाय मुझे बताईये। आपको नमस्कार है। मै आपके चरणों में प्रणाम करके यह प्रश्न कर रहा हूँ। द्रोणाचार्य बोले- तात! जब मैं रथ पर बैठकर कुपित हो बाणों की वर्षा करते हुए युद्ध में संलग्न रहूँ उस समय जो मुझे मार सके, ऐसे किसी शत्रु को नहीं देख रहा हूँ। राजन! जब मैं हथियार डालकर अचेत-सा होकर आमरण अनशन के लिये बैठ जाऊँ, उस अवस्था को छोड़कर और किसी समय कोई मुझे कोई मुझे नहीं मार सकता। उसी अवस्था में कोई श्रेष्ठ योद्धा युद्ध में मुझे मार सकता है; यह मैं तुमसे सच्ची बात कह रहा हूँ। यदि मैं किसी विश्वसनीय पुरुष से युद्धभूमि में कोई अत्यन्त अप्रिय समाचार सुन लूं तो हथियार नीचे डाल दूंगा। यह मैं तुमसे सच्ची बात कह रहा हूँ।

संजय कहते हैं- महाराज! परम बुद्धिमान द्रोणाचार्य की यह बात सुनकर उनका सम्मान करके राजा युधिष्ठिर कृपाचार्य के पास गये। उन्हें नमस्कार करके उनकी परिक्रमा करने के पश्चात वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने दुर्द्धर्ष वीर कृपाचार्य से कहा- ‘निष्पाप गुरुदेव! मैं पापरहित रहकर आपके साथ युद्ध कर सकूं, इसके लिये आपकी अनुमति चाहता हूँ। आपका आदेश पाकर मैं समस्त शत्रुओं को संग्राम में जीत सकता हूँ। कृपाचार्य बोले- महाराज! यदि युद्ध का निश्चर्य कर लेने पर तुम मेरे पास नहीं आते तो मैं तुम्हारी सर्वथा पराजय होने के लिये तुम्हे शाप दे देता। पुरुष अर्थ का दास है, अर्थ किसी का दास नहीं है। महाराज! यह सच्ची बात है। मै कौरवों के द्वारा अर्थ से बंधा हुआ हूँ। महाराज! मै निश्चय कर चुका हूँ कि मुझे उन्‍हीं के लिये युद्ध करना है; अतः तुमसे नपुंसक की तरह पूछ रहा हूँ कि तुम युद्ध सम्बन्धी सहयोग को छोड़कर मुझसे क्या चाहते हो?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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