महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 32 श्लोक 12-18

द्वात्रिंश (32) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 12-18 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 8

सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर[1] तथा मन को हृद्देश में स्थिर करके,[2] फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक-में स्थापित करके, परमात्मा सम्बन्धी योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष ‘ऊं’ इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिन्तन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है।[3] हे अर्जुन! जो पुरुष मुझमें अनन्यचित्त[4] होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तम[5] को स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगी के लिये मैं सुलभ हुं, अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हुं।[6]

परम सिद्धि को प्राप्त महात्माजन[7] मुझको प्राप्त होकर दु:खों के घर एवं क्षणभङ्गुर[8] पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते। सम्बन्ध- भगवत्प्राप्त महात्मा पुरुषों का पुनर्जन्म नहीं होता- इस कथन से यह प्रकट होता है कि दूसरे जीवों का पुनर्जन्म होता है। अत: यहाँ यह जानने की इच्छा होती है कि किस लोक तक पहुँचे हुए जीवों को वापस लौटना पड़ता है। इस पर भगवान् कहते हैं- हे अर्जुन! ब्रह्मलोकपर्यन्त[9]

सब लोक पुनरावर्ती[10] हैं, परंतु हे कुन्तीपुत्र! मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता; क्योंकि मैं कालातीत हूँ और ये सब ब्रह्मादि के लोक काल के द्वारा सीमित होने से अनित्य हैं। ब्रह्मा का जो एक दिन है, उसको एक हजार चतुर्युगी तक की अवधि वाला और रात्रि को भी ए‍क हजार चतुर्युगी तक की अवधि वाली जो पुरुष तत्त्व से जानते हैं,[11] वे योगीजन काल के तत्त्व को जानने वाले हैं।

सम्पूर्ण चराचर भूतगण ब्रह्मा के दिन के प्रवेश काल में अव्यक्त से अर्थात् ब्रह्मा के सूक्ष्‍म शरीर से उत्पन्न होते हैं[12] और ब्रह्मा की रात्रि के प्रवेश काल में उस अव्यक्त नामक ब्रह्मा के सूक्ष्‍म शरीर में ही लीन हो जाते हैं।[13]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रोत्रादि पांच ज्ञानेन्द्रिय और वाणी आदि पांच कर्मेन्द्रिय- इन दसों इन्द्रियों के द्वारा विषयों का ग्रहण होता है, इसलिये इनको ‘द्वार’ कहते हैं। इसके अतिरिक्त इनके रहने के स्थानों (गोलकों) को भी ‘द्वार’ कहते हैं। इन इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर अर्थात् देखने-सुनने आदि की समस्त क्रियाओं को बंद करके, साथ ही इन्द्रियों के गोलकों को भी रोककर इन्द्रियों की वृत्ति को अन्तर्मुख कर लेना ही सब द्वारों का संयम करना है। इसी को योगशास्त्र में ‘प्रत्याहार’ कहते हैं।
  2. नाभि और कण्‍ठ- इन दोनों स्थानों के बीच का स्थान, जिसे हृदयकाल भी कहते हैं और जो मन तथा प्राणों का निवास स्थान माना गया है, हृद्देश है और इधर-उधर भटकने वाले मन को संकल्प-विकल्पों से रहित करके हृदय में निरुद्ध कर देना ही उसको हृद्देश में स्थिर करना हैं।
  3. निर्गुण-निराकार ब्रह्म को अभेदभाव से प्राप्त हो जाना, परम गति को प्राप्त होना है। इसी को सदा के लिये आवागमन-से मुक्त होना, मुक्तिलाभ कर लेना, मोक्ष को प्राप्त होना अथवा निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त होना कहते हैं।
  4. जिसका चित्त अन्य किसी भी वस्तु में न लगाकर निरन्तर अनन्य प्रेम के साथ केवल परम प्रेमी परमेश्‍वर में ही लगा रहता हो, उसे ‘अनन्यचेता:’ कहते हैं।
  5. यहाँ ‘माम्’ पद सगुण साकार पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण का वाचक है; परंतु जो श्रीविष्‍णु और श्रीराम या भगवान् के दूसरे रूप को इष्‍ट मानने वाले हैं, उनके लिये वह रूप भी ‘माम्’ का ही वाच्य है तथा परम प्रेम और श्रद्धा के साथ निरन्तर भगवान् के स्वरूप का अथवा उनके नाम, गुण, प्रभाव और लीला आदि का चिन्तन करते रहना ही उन‍का स्मरण करना है।
  6. अनन्यभाव से भगवान् का चिन्तन करने वाला प्रेमी भक्त जब भगवान् के वियोग को नहीं सह सकता तब ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता 4/11) के अनुसार भगवान् को भी उसका वियोग असह्य हो जाता है और जब भगवान् स्वयं मिलने की इच्छा करते हैं, तब कठिनता के लिये कोई स्थान ही नहीं रह जाता। इसी हेतु से ऐसे भक्त के लिये भगवान् को सुलभ बतलाया गया है।
  7. अतिशय श्रद्धा और प्रेम के साथ नित्य-निरन्तर भजन-ध्‍यान का साधन करते-करते जब साधन की वह पराकाष्‍ठा रूप स्थि‍ति प्राप्त हो जाती है, जिसके प्राप्त होने के बाद फिर कुछ भी साधन करना शेष नहीं रह जाता और तत्काल ही उसे भगवान् का प्रत्यक्ष साक्षात्कार हो जाता है- उस पराकाष्‍ठा की स्थिति को ‘परम सिद्धि’ कहते हैं और भगवान् के जो भक्त इस परम सिद्धि को प्राप्त हैं, उन ज्ञानी भक्तों के लिये ‘महात्मा’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
  8. मरने के बाद कर्मपरवश होकर देवता, मनुष्‍य, पशु, पक्षी आदि योनियों में से किसी भी योनि में जन्म लेना ही पुनर्जन्म कहलाता है और ऐसी कोई भी योनि नहीं है, जो दु:खपूर्ण और अनित्य न हो। अत: पुनर्जन्म में गर्भ से लेकर मृत्यु पर्यन्त दु:ख-ही-दु:ख होने के कारण उसे दु:खों का घर कहा गया है और किसी भी योनि का तथा उस योनि में प्राप्त भोगों का संयोग सदा न रहने वाला होने से उसे अशातश्वत (क्षणभङ्गुर) बतलाया गया है।
  9. जो चतुर्मुख ब्रह्मा सृष्टि के आदि में भगवान् के नाभिकमल से उत्पन्न होकर सारी सृष्टि की रचना करते हैं, जिनको प्रजापति, हिरण्‍यगर्भ और सूत्रात्मा भी कहते हैं तथा इसी अध्‍याय में जिनको ‘अधिदैव’ कहा गया है (गीता 8/4), वे जिस ऊर्ध्‍वलोक में निवास करते हैं, उस लोक विशेष का नाम ‘ब्रह्मलोक’ हैं। उपर्युक्त ब्रह्मलोक के सहित उससे नीचे के जितने भी विभिन्न लोक हैं, उन सबको पुनरावर्ती समझना चाहिये।
  10. बार-बार नष्‍ट होना और उत्पन्न होना जिनका स्वभाव हो, उन लोकों को ‘पुनरावर्ती’ कहते हैं।
  11. यहाँ ‘युग’ शब्द ‘दिव्य युग’ का वाचक है- जो सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग चारों युगों के समय को मिलाने पर होता है। यह देवताओं का युग है, इसलिये इस को ‘दिव्यु युग’ कहते है। इस देवताओं के समय का परिणाम हमारे समय के परिणाम से तीन सौ साठ गुना अधिक माना गया है। अर्थात् हमारा एक वर्ष देवताओं का एक दिन-रात, हमारे तीस वर्ष देवताओं का एक महीना और हमारे तीन सौ साठ वर्ष उनका एक दिव्य वर्ष होता है। ऐसे बारह हजार दिव्य वर्षों का एक ‘दिव्य युग’ होता है। इसे ‘महायुग’ और ‘चतुर्युगी’ भी कहते है। इस संख्‍या के जोड़ने पर हमारे 43,20,000 वर्ष होते हैं। दिव्य वर्षों के हिसाब से बारह सौ दिव्य वर्षों का हमारा कलियुग, चौबीस सौ का द्वापर, छत्तीस सौ का त्रेता और अड़तालीस सौ वर्षों का सत्ययुग होता है। कुल मिलाकर 12,000 वर्ष होते हैं। इसे दूसरी तरह समझिये। हमारे युगों के समय का परिमाण इस प्रकार है-

     
    कलियुग- 4,32,000 वर्ष

    द्वापरयुग- 8,64,000 वर्ष (कलियुग से दुगुना)
    त्रेतायुग- 12,96,000 वर्ष (कलियुग से तिगुना)
    सत्ययुग- 17,28,000 वर्ष (कलियुग से चौगुना)



    कुल जोड़- 43,20,000 वर्ष

    यह एक दिव्य युग हुआ। ऐसे हजार दिव्य युगों का अर्थात् हमारे 4,32,00,00,000 (चार अरब बत्तीस करोड़) वर्ष का ब्रह्मा का एक दिन होता है और इतनी ही बड़ी उनकी रात्रि होती है। मनुस्मृति के प्रथम अध्‍याय में चौंसठवें से तिहत्तरवें श्‍लोक तक इस विषय का विशद वर्णन है। ब्रह्मा के दिन को ‘कल्प’ या ‘संग’ और रात्रि को प्रलय कहते है। ऐसे तीस दिन-रात का ब्रह्मा का ए‍क महिना, ऐसे बारह महीनों का एक वर्ष और ऐसे सौ वर्षों की ब्रह्मा की पूर्णायु होती है। ब्रह्मा के दिन-रात्रि का परिमाण बतलाकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि इस प्रकार ब्रह्मा का जीवन और उनका लोक भी सीमित तथा काल की अवधिवाला है, इसलिये वह भी अनित्य ही है और जब वही अनित्य है, तब उसके नीचे के लोक और उनमें रहने वाले प्राणियों के शरीर अनित्य हों, इसमें तो कहना ही क्या है?

  12. देव, मनुष्‍य, पितर, पशु, पक्षी आदि योनियों में जितने भी व्य‍क्त रूप में स्थित देहधारी चराचर प्राणी है, उन सबको ‘व्यक्ति’ कहा है।
    प्रकृति का जो सूक्ष्‍म परिणाम है, जिसको ब्रह्मा का सूक्ष्‍म शरीर भी कहते हैं, स्थूल पञ्चमहाभूतों के उत्पन्न होने से पूर्व की जो स्थिति है, उस सूक्ष्‍म अपरा प्राकृति का नाम यहाँ ‘अव्यक्त’ हैं।
    ब्रह्मा के दिन के आगम में अर्थात् जब ब्रह्मा अपनी सुषुप्ति-अवस्था का त्याग करके जागत् अवस्था को स्वीकार करते हैं, तब उस सूक्ष्‍म प्र‍कृति में विकार उत्पन्न होता है और वह स्थूल रूप में परिणत हो जाती है एवं उस स्थूल रूप में परिणत प्रकृति के साथ सब प्राणी अपने-अपने कर्मानुसार विभिन्न रूपों में सम्बद्ध हो जाते हैं। यही अव्यक्त से व्यक्तियों का उत्पन्न होता है।
  13. एक हजार दिव्य युगों के बीत जाने पर जिस क्षण में ब्रह्मा जाग्रत्-अवस्था का त्याग करके सुषुप्ति-अवस्था को स्वीकार करते हैं, उस प्रथम क्षण का नाम ब्रह्मा की रात्रि का आगम प्रवेशकाल है। उस समय स्थूल रूप में परिणत प्रकृति सूक्ष्‍म अवस्था को प्राप्त हो जाती है और समस्त देहधारी प्राणी भिन्न-भिन्न स्थूल शरीरों से रहित होकर प्रकृति की सूक्ष्‍म अवस्था में स्थित हो जाते हैं। यही उस अव्यक्त में समस्त व्यक्तियों का लय होना है।

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