महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 30 श्लोक 11-21

त्रिश (30) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: त्रिश अध्याय: श्लोक 11-21 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 6

शुद्ध भूमि में,[1] जिसके ऊपर क्रमश: कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊंचा है और न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापना करके- उस आसन पर बैठकर, चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्त:करण की शुद्धि के लिये योग का अभ्‍यास करे। काया, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर[2]

अपनी नासिका को अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ- ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित,[3] भरतहितं[4] तथा भलीभाँति शान्त अन्त:करण वाला[5] सावधान[6] योगी मन को रोककर मुझमें चित्तवाला[7] और मेरे परायण[8] होकर स्थित होवे।

वश में किये हुए मन वाला योगी इस प्रकार आत्मा को निरन्तर मुझ परमेश्‍वर के स्वरूप में लगाता हुआ[9] मुझमें रहने वाली परमानन्द की पराकाष्‍ठारूप शान्ति को प्राप्त होगा हैं।[10] हे अर्जुन! यह योग[11] न तो बहुत खाने वाले का, न बिल्कुल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।[12] दु:खों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का,[13] कर्मों में यथायोग्य चेष्‍टा करने वाले का[14] और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का[15] ही सिद्ध होता है। अत्यन्त वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भलीभाँति स्थित हो जाता है, उस काल में सम्पूर्ण भोगों से स्पृहारहित पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है। जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्‍यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गयी है।[16] सम्बन्ध- इस प्रकार ध्‍यानयोगी की अन्तिम स्थिति को प्राप्त हुए पुरुष के और उसके जीते हुए चित्त के लक्षण बतला देने के बाद अब तीन श्‍लोकों में ध्‍यानयोग द्वारा सच्चिदानन्द परमात्मा को प्राप्त पुरुष की स्थि‍ति का वर्णन करते हैं।

योग के अभ्यास से निरुद्ध चित्त जिस अवस्था में उपराम हो जाता हैं,[17] ओर जिस अवस्था में परमात्मा के ध्‍यान से शुद्ध हुई सूख्‍म बुद्धिद्वारा परमात्मा को साक्षात् करता हुआ[18] सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही संतुष्‍ट रहता है। इन्द्रियों से अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्‍म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द हैं;[19]उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है और जिस अवस्था में स्थित यह योगी परमात्मा के स्वरूप से विचलित होता ही नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ध्‍यानयोग का साधन करने के लिये ऐसा स्थान होना चाहिये, जो स्वभाव से ही शुद्ध हो और झाड़-बुहारकर, लीप-पोतकर अथवा धो-पोंछकर स्वच्छ और निर्मल बना लिया गया हो। गंगा, यमुना या अन्य किसी पवित्र नदी का तीर, पर्वत की गुफा, देवालय, तीर्थस्थान अथवा बगीचे आदि, पवित्र वायुमण्‍डलयुक्त स्थानों में से जो सुगमता से प्राप्त हो सकता हो और स्वच्छ, पवित्र तथा एकान्त हो- ध्‍यानयोग के लिये साधक को ऐसा ही कोई एक स्थान चुन लेना चाहिये।
  2. यहाँ जंघा से ऊपर और गले के स्थान का नाम ‘काया’ हैं, गले का नाम ‘ग्रीवा’ है और उससे ऊपर के अंग का नाम ‘शिर’ है। कमर या पेट को आगे-पीछे या दाहिनें-बायें किसी ओर भी न झुकाना, अर्थात् रीढ़ की हड्डी को सीधी रखना, गले को भी किसी ओर न झुकना और सिर को भी इधर-उधर न घुमाना- इस प्रकार तीनों को एक सूत में सीधा रखते हुए किसी भी अंग को जरा भी न हिलने-डुलने देना- यही इन सबको ‘सम’ और ‘अचल’ धारण करना है। ध्‍यानयोग के साधन में निद्रा, आलस्य, विक्षेप एवं शीतोष्‍णादि द्वन्द्व विघ्न माने गये है। इन दोषों से बचने का यह बहुत ही अच्छा उपाय है। काया, सिर और गले को सीधा तथा नेत्रों को खुला रखने से आलस्य और निद्रा का आक्रमण नहीं हो सकता। नाक की नोक पर दृष्टि लगाकर इधर-उधर अन्य वस्तुओं को न देखने से बाह्य विक्षेपों की सम्भावना नहीं रहती और आसन से दृढ़ हो जाने से शीतोष्‍णादि द्वन्द्वों से भी बाधा होने का भय नहीं रहता; इसलिये ध्‍यानयोग का साधन करते समय इस प्रकार आसन लगाकर बैठना बहुत ही उपयोगी है।
  3. ब्रह्मचर्य का तात्त्विक अर्थ दूसरा होने पर भी वीर्यधारण उसका एक प्रधान अर्थ हैं और यहाँ वीर्यधारण अर्थ ही प्रसंगनुकूल भी हैं। मनुष्‍य के शरीर में वीर्य ही एक ऐसी अमूल्य वस्तु है, जिसका भलीभाँति संरक्षण किये बिना शारीरिक, मानसिक अथवा आध्‍यात्मिक- किसी प्रकार का भी बल न तो प्राप्त होता है और न उसका संचय ही होता है; इसीलिये ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित होने के लिये कहा गया है।
  4. ध्‍यान करते समय साधक को निर्भय रहना चाहिये। मन में जरा भी भय रहेगा तो एकान्त और निर्जन स्थान में स्वाभाविक ही चित्त में विक्षेप हो जायगा। इसलिये साधक को उस समय मन में यह दृढ़ सत्य धारणा कर लेनी चाहिये कि परमात्मा सर्वशक्तिमान् है और सर्वव्यापी होने के कारण यहाँ भी सदा हैं ही, उनके रहते किसी बात का भय नहीं है। यदि कदाचित्त प्रारब्धवश ध्‍यान करते-करते मृत्यु हो जाय तो उससे भी परिणाम में परम कल्याण ही होगा।
  5. ध्‍यान करते समय मन से राग-द्वेष, हर्ष-शोक और काम-क्रोध आदि दूषित वृत्तियों को तथा सांसारिक संकल्प-विकल्पों को सर्वथा दूर कर देना एवं वैराग्य के द्वारा मन को सर्वथा निर्मल और शान्त कर देना- यही ‘प्रशान्तात्मा’ होना है।
  6. ध्‍यान करते समय साधक को निद्रा, आलस्य और प्रमाद आदि विघ्नों से बचने के लिये खूब सावधान रहना चाहिये। ऐसा न करने से मन और इन्द्रियां उसे धोखा देकर ध्‍यान में अनेक प्रकार के विघ्‍न उपस्थित कर सकती है। इसी बात को दिखलाने के लिये ‘युक्त’ विशेषण दिया गया है।
  7. एक जगह न रुकना और रोकते-रोकते भी बलात्कार से विषयों में चले जाना मन का स्वभाव हैं। इस मन को भलीभाँति रोके बिना ध्‍यानयोग का साधन नहीं बन सकता। इसलिये ध्‍यानयोगी को चाहिये कि वह ध्‍यान करते समय मन को बाह्य विषयों से भलीभाँति हटाकर परम हितैषी, परम सुहृद्, परम प्रेमास्पद परमेश्‍वर के गुण, प्रभाव, तत्त्व और रहस्य को समझकर, सम्पूर्ण जगत् से प्रेम हटाकर, एकमात्र उन्हीं को अपना ध्‍येय बनावे और अनन्यभाव से चित्त को उन्हीं में लगाने का अभ्‍यास करें।
  8. इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मुझको ही परम गति, परमध्‍येय, परम आश्रय और परम महेश्‍वर तथा सबसे बढ़कर प्रेमास्पद मानकर निरन्तर मेरे ही आश्रित रहना और मुझी को अपना एकमात्र परम रक्षक, सहायक, स्वामी तथा जीवन, प्राण और सर्वस्व मानकर मेरे प्रत्येक विधान में परम संतुष्‍ट रहना- यही मेरे (भगवान् के) परायण होना है।
  9. उपर्युक्त प्रकार से मन-बुद्धि के द्वारा निरन्तर तैल धारा की भाँति अवि‍च्छिन्नभाव से भगवान् के स्वरूप का चिन्तन करना और उसमें अटलभाव से तन्मय हो जाना ही आत्मा केा परमेश्‍वर के स्वरूप में लगाना हैं।
  10. जिसे नैष्ठि की शान्ति (गीता 5।12), शाश्वती शान्ति (गीता 9।31) और परा शान्ति (गीता 18।62) कहते हैं और जिसका परमेश्‍वर की प्राप्ति, परम दिव्य पुरुष की प्राप्ति, परम ग‍ति की प्राप्ति आदि नामों से वर्णन किया जाता हैं, वह शान्ति अद्वितीय अनन्त आनन्द की अवधि हैं और परम दयालु, परम सुहृद्, आनन्दनिधि, आनन्दस्वरूप भगवान् में नित्य-निरन्तर अचल और अटलभाव से निवास करती है। ध्‍यानयोग का साधक उसी शान्ति को प्राप्त करता है।
  11. ‘योग’ शब्द उस ‘ध्‍यानयोग’ का वाचक हैं, जो सम्पूर्ण दु:खों का आत्यन्तिक नाश करके परमानन्द और परम शान्ति के समुद्र परमेश्‍वर की प्राप्ति करा देने वाला है।
  12. उचित मात्रा में नींद ली जाय तो उससे थकावट दूर होकर शरीर में ताजगी आती है; परंतु वही नींद यदि आवश्‍यकता से अधिक ली जाय तो उससे तमोगुण बढ़ जाता हैं, जिससे अनवरत आलस्य घेरे रहता है और स्थिर होकर बैठने में कष्‍ट मालूम होता है। इसके अतिरिक्त अधिक सोने में मानवजीवन का अमूल्य समय भी नष्‍ट होता है। इसी प्रकार सदा जागते रहने से थकावट बनी रहती है। कभी ताजगी नहीं आती। शरीर, इन्द्रिय और प्राण शि‍थिल हो जाते हैं, शरीर में कई प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
  13. खाने-पीने की वस्तुएं ऐसी होनी चाहिये जो अपने वर्ण और आश्रमधर्म के अनुसार सत्य और न्याय के द्वारा प्राप्त हों, शास्त्रनुकूल, सात्त्विक हों (गीता 17।8), रजोगुण और तमोगुण को बढा़ने वाली न हों, पवित्र हो, अपनी प्रकृति, स्थिति और रुचि के प्रतिकूल न हों तथा योगसाधन में सहायता देने वाली हैं। उनका परिमाण भी उतना ही परिमित होना चाहिये, जितना अपनी शक्ति, स्वास्थ्य और साधन की दृष्टि से हितकर एवं आवश्‍यक हो। इसी प्रकार घूमना-फिरना भी उतना ही चाहिये, जितना अपने लिये आवश्‍यक और हितकार हो।
  14. वर्ण, आश्रम, अवस्था, स्थिति ओर वातावरण आदि के अनुसार जिसके लिये शास्त्र में जो कर्तव्यकर्म बतलाये गये हैं, उन्हीं का नाम कर्म हैं। उन कर्मों का उचित स्वरूप में और उचित मात्रा में यथायोग्य सेवन करना ही कर्मों में युक्त चेष्‍टा करना हैं। जैसे ईश्‍वर-भक्ति, देवपूजन, दीन-दुखियों की सेवा, माता-पिता आचार्य आदि गुरुजनों का पूजन, यज्ञ, दान, तप तथा जीविका सम्बन्धी कर्म यानी शिक्षा, पठन-पाठन-व्यापार आदि कर्म और शौच-स्त्राना‍दि क्रियाएं- ये सभी कर्म वे ही करने चाहिये, जो शास्त्रविहित हों, साधुसम्मत हों, किसी का अहित करने वाले न हों, स्वावलम्बन में सहायक हों, किसी को कष्‍ट पहुँचाने या किसी पर भार डालने वाले न हों और ध्‍यानयोग में सहायक हों तथा इन कर्मों का परिमाण भी उतना ही होना चाहिये, जितना जिसके लिये आवश्‍यक हो, जिससे न्यायपूर्वक शरीरनिर्वाह होता रहे ओर ध्‍यानयोग के लिये भी आवश्‍यकतानुसार पर्याप्त समय मिल जाय। ऐसा करने से शरीर, इन्द्रिय और मन स्वस्थ रहते हैं और ध्‍यानयोग सुगमता से सिद्ध होता है।
  15. दिन के समय जागते रहना, रात के समय पहले तथा पिछले पहर में जागना और बीच के दो पहरों में सोना- साधारणतया इसी को उचित सोना-जागना माना जाता है।
  16. हां ‘दीप’ शब्द प्रकाशमान दीपशिखा का वाचक है। दीपशिखा चित्त की भाँति प्रकाशमान् और चञ्चल हैं, इसलिये उसी के साथ मन की समानता है। जैसे वायु न लगने से दीपशिखा हिलती-डुलती नहीं, उसी प्रकार वश में किया हुआ चित्त भी ध्‍यानकाल में सब प्रकार से सुरक्षित होकर हिलता-डुलता नहीं, वह अविचल दी‍पशिखा की भाँति समभाव से प्रकाशित रहता हैं।
  17. जिस समय योगी का चित्त परमात्मा के स्वरूप में सब प्रकार से निरुद्ध हो जाता है, उसी समय उसका चित्त संसार से सर्वथा उपरत हो जाता है; फिर उसके अन्त:करण में संसार के लिये कोई स्थान ही नहीं रह जाता।
  18. एक विज्ञान-आनन्दघन पूर्णब्रह्म परमात्मा ही है। उसके सिवा कोई वस्तु है ही नहीं, केवल एकमात्र वही परिपूर्ण है। उसका यह ज्ञान भी उसी का है; क्योंकि वही ज्ञानस्वरूप है। वह सनातन, निर्विकार, असीम, अपार, अनन्त, अकल और अनवद्य है। मन, बुद्धि, अहंकार, द्रष्‍टा, दृश्‍य आदि जो कुछ भी हैं, सब उस ब्रह्म में ही आरोपित है और वस्तुत: ब्रह्मस्वरूप ही है। वह आनन्दमय हैं और अवर्णनीय हैं। उसका वह आनन्दमय स्वरूप भी आनन्दमय है। वह आनन्दस्वरूप पूर्ण है, नित्य है, सनातन है, अज है, अविनाशी है, परम है, चरम है, सत् है, चेतन है, विज्ञानमय है, कूटस्थ है, अचल है, ध्रुव है, अनामय है, बोधमय है, अनन्त है और शान्त है। इस प्रकार उसके आनन्दस्वरूप का चिन्तन करते हुए बार-बार ऐसी दृढ़ धारणा करते रहना चाहिये कि उस आनन्दस्वरूप के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। यदि कोई संकल्प उठे तो उसे भी आनन्दमय से ही निकला हुआ, आनन्दमय ही समझकर आनन्दमय में ही विलीन कर दे। इस प्रकार धारणा करते-करते जब समस्त संकल्प आनन्दमय बोधस्वरूप परमात्मा में विलीन हो जाते हैं और एक आनन्दघन परमात्मा के अतिरिक्त किसी भी संकल्प का अस्तित्व नहीं रह जाता, तब साधक की आनन्दमय परमात्मा में अचल स्थिति हो जाती हैं। इस प्रकार नित्य-नियमित ध्‍यान करते-करते अपनी और संसार की समस्त सत्ता जब ब्रह्म से अभिन्न हो जाती है, जब सभी कुछ परमानन्द और परम-शान्तिस्वरूप ब्रह्म बन जाता हैं, तब साधक को परमात्मा का वास्तवि‍क साक्षात्कार सहज ही हो जाता है।
  19. परमात्मा के ध्‍यान से होने वाला सात्त्विक सुख भी इन्द्रियों से अतीत, बुद्धिग्राह्य और अक्षय सुख में हेतु होने से अन्य सांसारिक सुखों की अपेक्षा अत्यन्त विलक्षण है, किंतु वह केवल ध्‍यानकाल में ही रहता है, सदा एकरस नहीं रहता। और वह चित्त की ही एक अवस्थाविशेष होती हैं, इसलिये उसे ‘आत्यन्तिक’ या ‘अक्षय सुख’ नहीं कहा जा सकता। परमात्मा का स्वरूपभूत यह सुख तो उस ध्‍यानजनित सुख का फल है। अतएव यह उससे अत्यन्त विलक्षण हैं।

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