महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 28 श्लोक 9-18

अष्‍टाविंश (28) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: अष्‍टाविंश अध्याय: श्लोक 9-18 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 4

हे अर्जुन! मेरे जन्‍म और कर्म दिव्‍य अर्थात् निर्मल और अलौकिक हैं- इस प्रकार जो मनुष्‍य तत्त्‍व से जान लेता है[1] वह शरीर को त्‍यागकर फिर जन्‍म को प्राप्‍त नहीं होता; किंतु मुझे ही प्राप्‍त होता है। पहले भी जिनके राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्‍ट हो गये थे ओर जो मुझमें अनन्यप्रेमपूर्वक[2] स्थित रहते थे, ऐसे मेरे आश्रित[3] रहने वाले बहुत से भक्त उपर्युक्त ज्ञानरूप तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।[4]

हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ;[5] क्योंकि सभी मनुष्‍य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।[6] सम्बन्ध- यदि यह बात है, तो फिर लोक भगवान् को न भजकर अन्य देवताओं की उपासना क्यों करते हैं? इस प्रकार कहते हैं- इस मनुष्‍यलोक में कर्मों के फल को चाहने वाले लोग देवताओं का पूजन किया करते हैं; क्योंकि उनको कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र मिल जाती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णों का समूह गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है।[7] इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्‍वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान।[8]

कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते- इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बंधता।[9] पूर्वकाल के मुमुक्षुओं ने भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किये है।[10] इसलिये तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किये जाने वाले कर्मों को ही कर। कर्म क्या है? और अकर्म क्या है?- इस प्रकार इसका निर्णय करने में बुद्धिमान् पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। इसलिये वह कर्म तत्त्व मैं तुझे भलीभाँति समझाकर कहूंगा, जिसे जानकर तू अशुभ से अर्थात् कर्मबन्धन से मुक्त हो जायगा।

कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये[11] और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये[12] तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये;[13] क्योंकि कर्म की गति गहन है। सम्बन्ध- इस प्रकार श्रोता के अन्त:करण में रुचि और श्रद्धा उत्पन्न करने के लिये कर्मतत्त्व को गहन एवं उसका जानना आवश्‍यक बतला‍कर अब अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार भगवान् कर्म का तत्त्व समझाते हैं- जो मनुष्‍य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्‍यों में बुद्धिमान् है और वह योगी समस्त कर्मों को करने वाला है।[14] इस प्रकार कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्मदर्शन का महत्त्व बतलाकर अब पांच श्‍लोकों में भिन्न-भिन्न शैली से उपर्युक्त कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म-दर्शनपूर्वक कर्म करने वाले सिद्ध और साधक पुरुषों की असंगता का वर्णन करके उस विषय का स्पष्ट करते हैं-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सर्वशक्तिमान् पूर्णब्रह्म परमेश्वर वास्‍तव में जन्‍म और मृत्‍यु से सर्वथा अतीत है। उनका जन्‍म जीवों की भाँति नहीं है। वे अपने भक्‍तों पर अनुग्रह करके अपनी दिव्‍य लीलाओं के द्वारा उनके मन को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये, दर्शन, स्‍पर्श और भाषणादि के द्वारा उनको सुख पहुँचाने के लिये, संसार में अपनी दिव्‍य कीर्ति फैलाकर उसके श्रवण, कीर्तन और स्‍मरण द्वारा लोगों के पापों का नाश करने के लिये तथा जगत् में पापाचारियों का विनाश करके धर्म की स्‍थापना करने के लिये जन्‍म-धारण की केवल लीलाभाव करते हैं। उनका वह जन्‍म निर्दोष और अलौकिक है। जगत् का कल्‍याण करने के लिये ही भगवान् इस प्रकार मनुष्‍यादि के रूप में लोगों के सामने प्रकट होते हैं; उनका वह विग्रह प्राकृत उपादानों से बना हुआ नहीं भगवान् इस प्रकार मनुष्‍यादि के रूप में लोगों के सामने प्रकट होते है; उनके जन्‍म में गुण और कर्म-संस्‍कार हेतु नहीं होते; वे माया के वश में होकर जन्‍म धारण नहीं करते, किंतु अपनी प्रकृति के अधिष्‍ठाता होकर योगशक्ति से मनुष्‍यादि के रूप में केवल लोगों पर दया करके ही प्रकट होते हैं- इस बात को भलीभाँति समझ लेना ही भगवान् के जन्‍म को तत्त्‍व से दिव्‍य समझना है। भगवान् सृष्टि रचना और अवतार लीलादि जितने भी कर्म करते हैं, उनमें उनका किंचिन्‍मात्र भी स्‍वार्थ का संबंध नहीं है; केवल लोगों पर अनुग्रह करने के लिये ही वे मनुष्‍यादि अवतारों में नाना प्रकार के कर्म करते हैं (गीता 3।22-23)। भगवान् अपनी प्रकृति द्वारा समस्‍त कर्म करते हुए भी उन कर्मों के प्रति कर्तृत्‍वभाव न रहने के कारण वास्‍तव में न तो कुछ भी करते हैं और न उनके बंधन में पड़ते है; भगवान् की उन कर्मों के फल में किंचिन्‍मात्र भी स्‍पृहा नहीं होती (गीता 4।23-24)। भगवान् के द्वारा जो कुछ भी चेष्‍टा होती है, लो‍कहितार्थ ही होती है (गीता 4।8); उनके प्रत्‍येक कर्म में लोगों का हित भरा रहता है। वे अनंत कोटि ब्रह्मण्‍डों के स्‍वामी होते हुए भी सर्वसाधारण के साथ अभिमान रहित दया और प्रेमपूर्ण समता का व्‍यवहार करते हैं (गीता 9।29); जो कोई मनुष्‍य जिस प्रकार उनको भजता है, वे स्‍वयं उसे उसी प्रकार भजते हैं ( गीता 4।11); अपने अनन्‍यभक्‍तों का योगक्षेम भगवान् स्‍वयं चलाते हैं (गीता 9।22), उनको दिव्‍य ज्ञान प्रदा करते हैं (गीता 10।10-11) और भक्तिरूपी नौका पर बैठै हुए भक्‍तों का संसार समुद्र से शीघ्र ही उद्धार करने के लिये स्वयं उनके कर्णधार बन जाते हैं (गीता 12।7)। इस प्रकार भगवान् के समस्त कर्म आसक्ति, अहङकार और कामनादि दोषों से सर्वथा रहित निर्मल और शुद्ध तथा केवल लोगों का कल्याण करने एवं नीति, धर्म शुद्ध प्रेम आदि भक्ति आदि का जगत् में प्रचार करने के लिये ही होते हैं; इन सब कर्मों को करते हुए भी भगवान् का वास्तव में उन कर्मों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, वे उनसे सर्वथा अतीत और अकर्ता हैं- इस बात को भली-भाँति समझ लेना, इसमें किचिन्मात्र भी असम्भावना या‍ विपरीत भावना न रहकर पूर्ण विश्‍वास हो जाना ही भगवान् के कर्मों की तत्त्व से दिव्य समझना हैं।
  2. भगवान् में अनन्य प्रेम हो जाने के कारण जिनको सर्वत्र एक भगवान्-ही-भगवान् दीखने लग जाते हैं, उनका वाचक ‘मन्मया:’ पद हैं।
  3. जो भगवान् की शरण ग्रहण कर लेते हैं, सर्वथा उन पर निर्भर हो जाते हैं, सदा उनमें ही संतुष्‍ट रहते हैं, जिनका अपने लिये कुछ भी कर्तव्य नहीं रहता और जो सब कुछ भगवान् का समझकर उनकी आज्ञा का पालन करने के उद्देश्‍य से उनकी सेवा के रूप में ही समस्त कर्म करते हैं- ऐसे पुरुषों का वाचक ‘मामुपाश्रिता:’ पद हैं।
  4. यहाँ सांख्‍ययोग का प्रसंग नहीं हैं भक्ति का प्रकरण है तथा पूर्वश्लोक में भगवान् के जन्म-कर्मों को दिव्य समझने का फल भगवान् की प्राप्ति बतलाया गया है; उसी के प्रमाण में यह श्‍लोक है। इस कारण यहाँ ‘ज्ञानतपसा’ पद में ज्ञान का अर्थ आत्मज्ञान न मानकर भगवान् के जन्म-कर्मों को दिव्य समझ लेना रूप ज्ञान ही माना गया हैं। इस ज्ञान रूप तप के प्रभाव से मनुष्‍य का भगवान् में अनन्य प्रेम हो जाता हैं, उसके समझ पाप-ताप नष्‍ट हो जाते हैं, अन्त:करण में सब प्रकार के दुगुर्णों का सर्वथा अभाव हो जाता है और समस्त कर्म भगवान् के कर्मों की भाँति दिव्य हो जाते हैं तथा वह कभी भगवान् से अलग नहीं होता, उसको भगवान् सदा ही प्रत्यक्ष रहते हैं- यही उन भ‍क्तों का ज्ञानरूप तप से पवित्र होकर भगवान् के स्वरूप को प्राप्त हो जाना है।
  5. इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मेरे भक्तों के भजन के प्रकार भिन्न-भिन्न होते हैं। अपनी-अपनी भावना के अनुसार भक्त मेरे पृथक्-पृ‍थक् रूप मानते हैं और अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार मेरा भजन-स्मरण करते हैं, अतएव मैं भी उनको उनकी भावना के अनुसार उन उन रूपों में ही दर्शन देता हुं तथा वे जिस प्रकार जिस-जिस भाव से मेरी उपासना करते हैं, मैं उनके उस-उस प्रकार ओर उस-उस भावना ही अनुसरण करता हूँ। जो मेरा चिन्तन करता है उसका में चिन्तन करता हूं, जो मेरे लिये व्याकुल होता है उसके लिये मैं भी व्याकुल हो जाता हूं, जो मेरा वियोग सहन नहीं कर सकता मैं भी उसका वियोग नहीं सहन कर सकता। जो मुझे अपना सर्वस्व अर्पण कर देता है, मैं भी उसे अपना सर्वस्व अर्पण कर देता हूँ। जो ग्वाल-बालों की भाँति मुझे अपना सखा मानकर मेरा भजन करते हैं, उनके साथ मैं मित्र-के-जैसा व्यवहार करता हूँ। जो नन्द-यशोदा की भाँति पुत्र मानकर मेरा भजन करते हैं, उनके साथ पुत्रों के जैसा बर्ताव करके उनका कल्याण करता हूँ। इसी प्रकार रुक्मिणी की तरह पति समझकर भजने वालों के साथ पति-जैसा, हनुमान की भाँति स्वामी समझकर भजने वालों के साथ स्वामी जैसा और गोपियों की भाँति माधुर्यभाव से भजने वालों के साथ प्रियतम-जैसा बर्ताव करके मैं उनका कल्याण करता हूँ और उनको दिव्य लीला-रस का अनुभव करता हूँ।
  6. इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि लोग मेरा अनुसरण करते हैं, इसलिये यदि मैं इस प्रकार प्रेम और सौहार्द का बर्ताव करूंगा तो दूसरे लोग भी मेरी देखा-देखी ऐसे ही नि:स्वार्थभाव से एक दूसरों के साथ यथायोग्य प्रेम और सुहृदता का बर्ताव करेंगे। अतएव इस नीति का जगत् में प्रचार करने के लिये भी ऐसा करना मेरा कर्तव्य है।
  7. अनादि काल से जीवों के जो जन्म-जन्मान्तरों में किये हुए कर्म हैं, जिनका फलभोग नहीं हो गया है, उन्हीं के अनुसार उनमें यथायोग्य तत्त्व, रज और तमोगुण की न्यूनाधिकता होती है। भगवान् जब सृष्टि-रचना के समय मनुष्‍यों का निर्माण करते हैं, तब उन-उन गुण और कर्मों के अनुसार उन्हें ब्राह्मणादि वर्णों में उत्पन्न करते हैं। साथ ही यह भी समझ लेना चाहिये कि देव, पितर और तिर्यक् आदि दूसरी-दूसरी योनियों की रचना भी भगवान् जीवों के गुण और कर्मों के अनुसार ही करते हैं। इसलिये इन सृष्टि-रचनादि कर्मों में भगवान् की किंचिन्मात्र भी विषमता नहीं है, यही भाव दिखलाने के लिये यहाँ यह बात कही गयी है कि मेरे द्वारा चारों वर्णों की रचना उनके गुण और कर्मों के विभागपूर्वक की गयी है। आजकल लोग यह पूछा करते हैं कि ब्राह्मणादि वर्णों का विभाग जन्म से मानना चाहिये या कर्म से? तो उसका इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर उत्तर यह हो सकता है कि यद्यपि जन्म और कर्म दोनों ही वर्ण के अंग होने के कारण वर्ण की पूर्णता तो दोनों से ही होती हैं परंतु इन दोनों में प्रधानता जन्म की हैं, इसलिये जन्म से ही ब्राह्मणादि वर्णों का विभाग मानना चाहिये; क्योंकि यदि माता-पिता एक वर्ग के हों और किसी प्रकार से भी जन्म में संकरता न आये तो सहज ही कर्म में भी प्राय: संकरता नहीं आती; परंतु संगदोष, आहारदोष और दूषित शिक्षा-दीक्षादि कारणों से कर्म में कहीं कुछ व्यतिक्रम भी हो जाय तो जन्म से वर्ण मानने पर वर्णरक्षा हो सकती है, तथापि कर्मशुद्धि की कम आवश्‍यकता नहीं है। कर्म के सर्वथा नष्‍ट हो जाने पर वर्ण की रक्षा बहुत ही कठिन हो जाती है। अत: जीविका और विवाहादि व्यवहार के लिये तो जन्म की प्रधानता तथा कल्याण की प्राप्ति में कर्म की प्रधानता माननी चाहिये; क्योंकि जाति से ब्राह्मण होने पर यदि उसके कर्म ब्राह्मणोचित्त नहीं है तो उसका कल्याण नहीं हो सकता तथा सामान्य धर्म के अनुसार शम-दमादि का पालन करने वाला और अच्छे आचरण वाला शुद्र भी आदि ब्राह्मणाचित्त यज्ञादि कर्म करता है और उससे अपनी जीविका चलाता है तो पाप का भागी होता है।
  8. इससे भगवान् के कर्मों की दिव्यता का भाव प्रकट किया गया है। अभिप्राय यह है कि भगवान् का किसी भी कर्म में राग-द्वेष या कर्तापन नहीं होता। वे सदा ही उन कर्मों से सर्वथा अतीत हैं, उनके सकाश से उनकी प्रकृत्ति ही समस्त कर्म करती है। इस कारण लोकव्यवहार में भगवान् उन कर्मों के कर्ता माने जाते हैं; वास्तव में भगवान् सर्वथा उदासीन हैं, कर्मों से उनका कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं (गीता 9।9-10)।
  9. उपर्युक्त वर्णन के अनुसार जो यह समझ लेना है कि विश्व-रचनादि समस्त कर्म करते हुए भी भगवान् वास्तव में अकर्ता ही हैं- उन कर्मों से उनका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, उनके कर्मों में विषमता लेशमात्र भी नहीं हैं, कर्मफल में उनकी किंचिन्मात्र भी आ‍सक्ति, ममता या कामना नहीं हैं, अतएव उनको वे कर्म बन्धन में नहीं डाल सकते- यही भगवान् को उपर्युक्त प्रकार से तत्त्वत: जानना है और इस प्रकार भगवान् के कर्मों का रहस्य यथार्थरूप से समझ लेने वाले महात्मा के कर्म भी भगवान् की ही भाँति ममता, आसक्ति, फलेच्छा और अंहकार के बिना केवल लोकसंग्रह के लिये ही होते हैं; इसलिये वह भी कर्मों से नहीं बंधता।
  10. जो मनुष्‍य जन्म-मरणरूप संसारबन्धन से मुक्त होकर परमानन्दस्वरूप परमात्मा को प्राप्त करना चाहता है, जो सांसारिक भोगों को दु:खमय ओर क्षणभंगुर समझकर उनसे विरक्त हो गया है और जिसे इस लोक या परलोक के भोगों की इच्छा नहीं है- उसे ‘मुमुक्ष’ कहते हैं। अर्जुन भी मुमुक्ष थे, वे कर्मबन्धन के भय से स्वधर्मरूप कर्तव्य कर्म का त्याग करना चाहते थे; अतएव भगवान् ने इस श्‍लोक में पूर्वकाल के मुमुक्षओं का उदाहरण देकर यह बात समझायी है कि कर्मों को छोड़ देने मात्र से मनुष्‍य उनके बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता, इसी कारण पूर्वकाल के मुमुक्षओं ने भी मेरे कर्मों की दिव्यता का तत्त्व समझकर मेरी ही भाँति कर्मों में ममता, आसक्ति, फलेच्छा और अहंकार त्याग करके निष्‍कामभाव से अपने-अपने वर्णाश्रम के अनुसार उनका आचरण ही किया है।
  11. साधारणत: मनुष्‍य यही जानते हैं कि शास्त्रविहित कर्तव्यकर्मों का नाम कर्म हैं; किंतु इतना जान लेने मात्र से कर्म का स्वरूप नहीं जाना जा सकता, क्योंकि उसके आचरण में भाव का भेद होने से उसके स्वरूप में भेद हो जाता हैं। अत: अपने अधिकार के अनुसार वर्णाश्रमो‍चित्त कर्तव्य-कर्मों को आचरण में लाने के लिये कर्मों का तत्त्व को समझना चाहिये।
  12. साधारणत: मनुष्‍य यही समझते हैं कि मन, वाणी और शरीर द्वारा की जाने वाली क्रियाओं का स्वरूप से त्याग कर देना ही अकर्म यानी कर्मों से रहित होना हैं; किंतु इतना समझ लेने मात्र से अकर्म का वास्तविक स्वरूप नहीं जाना जा सकता; क्योंकि भाव के भेद से इस प्रकार का अकर्म भी कर्म या विकर्म के रूप में बदल जाता है। अत: किस भाव से किस प्रकार की हुई कौन-सी क्रिया या उसके त्याग का नाम अकर्म है एवं किस स्थिति में किस मनुष्‍य को किस प्रकार उसका आचरण करना चाहिये, इस बात को भलीभाँति समझकर साधन करना चाहिये।
  13. साधारणत: झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार, हिंसा आदि पापकर्मों का नाम ही विकर्म है- यह प्रसिद्ध है; पर इतना जान लेने मात्र से विकर्म का स्वरूप यथार्थ नहीं जाना जा सकता, क्योंकि शास्त्र के तत्त्व को न जानने वाले अज्ञानी पुण्‍य को भी पाप मान लेते हैं ओर पाप को भी पुण्‍य मान लेते हैं। वर्ण, आश्रम और अधिकार के भेद से जो कर्म एक के लिये विहित होने से कर्तव्य (कर्म) है, वहीं दूसरे के लिये निषिद्ध होने से पाप (विकर्म) हो जाता है- जैसे सब वर्णों की सेवा करके जीविका चलाना शूद्र के लिये विहित कर्म हैं, किंतु वही ब्राह्मण के लिये निषिद्ध कर्म हैं; जैसे दान लेकर, वेद पढ़ाकर और यज्ञ कराकर जीविका चलाना ब्राह्मण के लिये कर्तव्य कर्म हैं किंतु दूसरे वर्णों के लिये पाप हैं; जैसे गृहस्थ के लिये न्यायोपार्जित द्रव्यसंग्रह करना और ॠतुकाल में स्वपत्नीगमन करना धर्म हैं, किंतु संन्यासी के लिये काञ्चन और कामिनी का दर्शन स्पर्श करना भी पाप है। अत: शूद्र, कपट, चोरी, व्यभिचार, हिंसा आदि जो सर्वसाधारण के लिये निषिद्ध हैं तथा अधिकार भेद से जो भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिये निषिद्ध हैं- उन सबका त्याग करने के लिये विकर्म के स्वरूप को भलीभाँति समझना चाहिये।
  14. यज्ञ, दान, तप तथा वर्णाश्रम के अनुसार जीविका और शरीर-निर्वाह सम्बन्धी जितने भी शास्त्रविहित कर्म हैं- उन सबमें आसक्ति, फलेच्छा, ममता और अहंकार का त्याग कर देने से वे इस लोक या परलोक में सुख-दु:खादि फल भुगताने के ओर पुर्नजन्म के हेतु नहीं बनते, बल्कि मनुष्‍य के पूर्वकृत समस्त शुभाशुभ कर्मों का नाश करके उसे संसार-बन्धन से मुक्त करने वाले होते हैं- इस रहस्य को समझ लेना ही कर्म में अकर्म देखना है। इस प्रकार कर्म में अकर्म देखने वाला मनुष्‍य आसक्ति, फलेच्छा ओर ममता के त्यागपूर्वक ही विहित कर्मों का यथायोग्य आचरण करता है। अत: वह कर्म करता हुआ भी उनसे लिप्त नहीं होता, इसलिये वह मनुष्‍यों में बुद्धिमान् है; वह परमात्मा को प्राप्त है, इसलिये योगी है ओर उसे कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रहता- वह कृतकृत्य हो गया हैं, इ‍सलिये वह समस्त कर्मों को करने वाला है।
    लोकप्रसिद्धि में मन, वाणी और शरीर के व्यापार को त्याग देने का ही नाम अकर्म है; यह त्यागरूप अकर्म भी आसक्ति, फलेच्छा, ममता और अहंकारपूर्वक किया जाने पर पुनर्जन्म का हेतु बन जाता है; इतना ही नही, कर्तव्य कर्मों की अवहेलना से या दम्भाचार के लिये किया जाने पर तो यह विकर्म (पाप) के रूप में बदल जाता है- इस रहस्य को समझ लेना ही अकर्म में कर्म देखना है।

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