महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 25 श्लोक 23-47

पंचविंश (25) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवतद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: पंचविंश अध्याय: श्लोक 23-47 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 1

‘दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आये है, इन युद्ध करने वालों को मैं देखूँगा’। संजय बोले- हे धृतराष्ट्र! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज श्रीकृष्णचन्द्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके इस प्रकार कहा कि- ‘हे पार्थ! युद्ध के लिये जुटे हुए इन कौरवों को देख’।[1] इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ने ही सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाईयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा। उन उपस्थित सम्पूर्ण बन्धुओं को देखकर वे कुन्तीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले।

अर्जुन बोले- हे कृष्ण! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमान्च हो रहा है। हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है, इसलिये मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ। हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरित देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता। हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविन्द! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है? हमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं। गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं।

हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता; फिर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या है? हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों[2] को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे? यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिये क्यों नहीं विचार करना चाहिये? कुल के नाश से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है।[3]

हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्‍णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है। वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं। इन वर्णसंकर कारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुलधर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं। हे जनार्दन! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं। हा! शोक! हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान् पाप करने को तैयार हो गये हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिये उद्यत हो गये हैं। यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिये धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डाले तो वह मारना भी मेरे लिये अधिक कल्याणकारक होगा।

संजय बोले- रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाला अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाण सहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के श्रीमद्भगवदगीता पर्व के अन्तर्गत ब्रह्मविद्या एवं योगशास्त्ररूप श्रीमद्भगवदगीतोपनिषद्, श्री कृष्णार्जुन संवाद में अर्जुन विषाद योग नामक पहला अध्याय पूरा हुआ भीष्म पर्व में पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।[4]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कौरवों को देख इन शब्‍दों का प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि इस सेना में जितने लोग हैं, प्रायः सभी तुम्‍हारे वंश के तथा आत्‍मीय स्‍वजन ही हैं। उनको तुम अच्‍छी तरह देख लो। भगवान् के इसी संकेत ने अर्जुन के अन्तःकरण में छिपे हुए कुटुम्‍ब स्‍नेह को प्रकट कर दिया, मानो अर्जुन को निमित्त बनाकर लोककल्‍याण करने के लिये स्‍वयं भगवान् ने ही इन शब्‍दों के द्वारा उनके हृदय में ऐसी भावना उत्‍पन्‍न कर दी, जिसमें उन्‍होंने युद्ध करने से इन्‍कार कर दिया और उसके फलस्‍वरूप साक्षात् भगवान् के मुखारविन्‍द से त्रिलोक पावन दिव्‍य गीतामृत की ऐसी परम मधुर धारा बह निकली, जो अनन्‍त काल तक जीवों का परम कल्‍याण करती रहेगी।
  2. वसिष्ट स्‍मृति में आततायी के लक्षण इस प्रकार बतलाये गये हैं- “आग लगाने वाला, विष देने वाला, हाथ में शस्त्र लेकर मारने को उद्यत, धन हरण करने वाला, जमीन छिनने वाला और स्‍त्री का हरण करने वाला– ये छहों ही आततायी हैं।
  3. पाँच हेतु ऐसे हैं, जिनके कारण मनुष्‍य अधर्म से बचता है और धर्म को सुरक्षित रखने में समर्थ होता है– ईश्‍वर का भय, शास्त्र का शासन, कुल कुल मर्यादाओं के टूटने का डर, राज्य का कानून और शारीरिक तथा आर्थिक अनिष्ट की आशंका। इनमें ईश्‍वर और शास्त्र सर्वथा सत्‍य होने पर भी वे श्रद्धा पर निर्भर रहते है, प्रत्‍यक्ष हेतु नहीं है। राज्‍य के कानून प्रजा के लिये ही प्रधानतया होते हैं। जिनके हाथों में अधिकार होते हैं, वे उन्‍हे प्रायः नहीं मानते। शारीरिक तथा आर्थिक अनिष्‍ट की आशंका अधिकतर व्‍यक्तिगत रूप में हुआ करती है। एक कुल मर्यादा ही ऐसी वस्‍तु है, जिसका सम्‍बन्‍ध सारे कुटुम्‍ब के साथ रहता है। जिस समाज या कुल में परम्‍परा से चली आती हुई शुभ और श्रेष्ठ मर्यादाएं नष्‍ट हो जाती हैं, वह समाज या कुल बिना लगाम के मतवाले घोड़ों के समान यथेच्‍छाचारी हो जाता है। यथेच्‍छाचार किसी भी नियम को सहन नहीं कर सकता, वह मनुष्‍य को उच्‍छृंखल बना देता है। जिस समाज के मनुष्‍यों में इस प्रकार की उच्‍छृंखता आ जाती है, उस समाज या कुल में स्‍वाभावित ही सर्वत्र पाप छा जाता है।
  4. प्रत्‍येक अध्‍याय की समाप्ति पर जो उपर्युक्‍त पुष्पिका दी गयी है, इसमें श्री मद्भगवद्गीता का महात्‍म्‍य और प्रभाव ही प्रकट किया गया है। "तत्‍सत्" भगवान् के पवित्र नाम हैं (गीता 17:23), स्‍वयं श्री भगवान् के द्वारा गायी जाने के कारण इसका नाम "श्रीमद्भगवद्गीता" है। इसमें उपनिषदों का सारतत्त्व संगृहीत है और यह स्‍वयं भी उपनिषद् है, इससे इसको "उपनिषद" कहा गया है, निर्गुण निराकार परमात्‍मा के परमतत्त्‍व का साक्षात्‍कार कराने वाली होने के कारण इसका नाम "ब्रह्मविद्या" है और जिस कर्म योग का योग के नाम वर्णन हुआ है, उस निष्‍कामभावपूर्ण कर्मयोग का तत्त्व बतलाने वाली होने से इसका नाम "योगशास्त्र" है। यह साक्षात् परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्ण और भक्तवर अर्जुन का संवाद है और इसके प्रत्‍येक अध्‍याय में परमात्‍मा को प्राप्‍त कराने वाले योग का वर्णन है, इसी में इसके लिये "श्रीकृष्‍णार्जन संवादे-------------------- योगों नाम" कहा गया है।

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