द्वादशाधिकशततम (112) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
महाभारत: द्रोण पर्व: द्वादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 38-57 का हिन्दी अनुवाद
‘काल से प्रेरित हुआ दुर्योधन इन समस्त राजाओं के समुदाय को तथा रथियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, भूरिश्रवा, जयद्रथ और कर्ण को पाकर पाण्डवों का अपमान करते हैं तथा अपने आप को कृतार्थ मान रहा है। ‘कुन्तीनन्दन! वे सब लोग आज मेरे नाराचों के लक्ष्य बने हुए हैं। वे मन के समान वेगशाली हो तो भी मेरे हाथों से छूट नहीं सकेंगे। ‘दूसरों के बल पर जीने वाले दुर्योधन ने इन सब लोगों का सदा आदरपूर्वक भरण-पोषण किया है; परंतु ये मेरे बाण-समूहों से पीड़ित होकर आज विनष्ट हो जायेंगे। ‘राजन! ये जो सोने की ध्वजा वाले रथी दिखायी देते हैं, ये दुर्वारण नाम वाले काम्बोज सैनिक हैं। आपने इनका नाम सुना होगा। ‘ये शूर, विद्वान तथा धनुर्वेद में परिनिष्ठित हैं। इनमें परस्पर बड़ा संगठन हैं। ये एक दूसरे का हित चाहने वाले हैं। ‘भरतनन्दन! दुर्योधन की क्रोध में भरी हुई ये कई अक्षौहिणी सेनाएं कौरव वीरों से सुरक्षित हो मेरे लिये तैयार खड़ी हैं। महाराज! ये सब सावधान होकर मुझ पर ही आक्रमण करने वाली हैं। ‘परंतु जैसे आग तिनकों को जला डालती हैं, उसी प्रकार मैं उन समझ कौरव-सेनिकों को मथ डालूंगा। अत: राजन! रथ को सुसज्जित करने वाले लोग आज मेरे रथ पर यथावत रुप से भरे हुए तरकसों तथा अन्य सब आवश्यक उपकरणों को रख दें।। ‘इस संग्राम में नाना प्रकार के आयुधों का उसी प्रकार संग्रह कर लेना चाहिये, जैसा कि आचार्यों ने उपदेश किया है। रथ पर रखी जाने वाली युद्ध सामग्री पहले से पांच गुनी कर देनी चाहिये। ‘आज मैं विषधर सर्प के समान क्रूर स्वभाव वाले उन काम्बोज-सैनिकों के साथ युद्ध करुंगा, जो नाना प्रकार के शस्त्र समुदायों से सम्पन्न और भाँति-भाँति के आयुधों द्वारा युद्ध करने में कुशल हैं। ‘दुर्योधन का हित चाहने वाले और विष के समान घातक उन प्रहार कुशल किरात-योद्धाओं के साथ भी संग्राम करुंगा, जिनका राजा दुर्योधन ने सदा ही लालन-पालन किया है।। ‘प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी, दुर्घर्ष एवं इन्द्र के ‘राजन! इनके सिवा और भी जो नाना प्रकार के बहुसंख्यक युद्धदुर्भद, काल के तुल्य भयंकर तथा दुर्जय योद्धा हैं, रणक्षेत्र में उन सब का सामना करुंगा।‘इसलिये उत्तम लक्षणों से सम्पन्न श्रेष्ठ घोड़े, जो विश्राम कर चुके हों, जिन्हें टहलाया गया हो और पानी भी पिला दिया गया हों, पुन: मेरे रथ में जोते जायें। संजय कहते हैं- महाराज! तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने सात्यकि के रथ पर भरे हुए सारे तरकसों, समस्त उपकरणों तथा भाँति-भाँति के शस्त्रों को रखवा दिया। तदनन्तर सब प्रकार से सुशिक्षित उन चारों उत्तम घोड़ों को सेवकों ने मदमत बना देने वाला रसीला पेय पदार्थ पिलाया। जब वे पी चुके तो उन्हें टहलाया और नहलाया गया। उसके बाद दाना और चारा खिलाया गया। फिर उन्हें सब प्रकार से सुसज्जित किया गया। उनके अंगों में गड़े हुए बाण पहले ही निकाल दिये गये थे। वे चारों घोड़े सोने की मालाओं से विभूषित थे। उन योग्य अश्वों की कान्ति सुवर्ण के समान थी। वे सुशिक्षित और शीघ्रगामी थे। उनके मन में हर्ष और उत्साह था। तनिक भी व्यग्रता नहीं थी। उन्हें विधिपूर्वक सजाया गया था। स्वर्णमय अलंकारों से अलकृत उन अश्वों को सारथि ने रथ में जोता। वह रथ सुवर्णमय केशरों से सशोभित सिंह के चिह्न वाले विशाल ध्वज से सम्पन्न था। मणियों और मूंगों से चित्रित सोने की शलाकाओं से शोभायमान एवं श्वेत पताकाओं से अलंकृत था। उस रथ के ऊपर स्वर्णमय दण्ड से विभूषित छत्र सना हुआ था तथा रथ के भीतर नाना प्रकार के शस्त्र तथा अन्य आवश्यक सामान रखें गये थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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