महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 146 श्लोक 19-37

षट्चत्वारिंशदधिकशततम (146) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

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महाभारत: द्रोणपर्व: षट्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद

देवराज इन्द्र के समान रथ पर बैठे हुए सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ नरश्रेष्ठ अर्जुन एक ही साथ सम्पूर्ण दिशओं में महान् अस्त्रों का प्रहार करते हुए सबके लिये दर्शनीय हो रहे थे। वे अपने धनुष की टंकार करते हुए रथ के मार्गो पर नृत्य सा कर रहे थे। जैसे आकाश में तपते हुए दोपहर के सूर्य की ओर देखना कठिन होता है, उसी प्रकार उनकी ओर राजा लोग यत्न करने पर भी देख नहीं पाते थे। प्रज्वलित एवं भयंकर बाण लिये किरीटघारी अर्जुन वर्षाऋतु में अधिक जल से भरे हुए इन्द्रधनुष सहित महा मेघ के समान सुशोभित हो रहे थे। उस युद्धस्थल में अर्जुन ने बड़े-बड़े अस्त्रों की ऐसी बाढ़ ला दी थी, जो परम दुस्तर और अत्यन्त भयंकर थी। उसमें कौरवदल के बहुसंख्यक श्रेष्ठ योद्धा डूब गये।

भूपाल! अर्जुन का वह महान् युद्ध मृत्यु का क्रीड़ास्थल बना हुआ था, जो शस्त्रों के आघात से ही सुन्दर लगता था। वहाँ बहुत सी ऐसी लाशें पड़ी थीं, जिनके मस्तक कट गये थे और भुजाएं काट दी गयी थीं। बहुत सी ऐसी, भुजाएं दृष्टिगोचर होती थीं, जिनके हाथ नष्ट हो गये और बहुत से हाथ भी अंगुलियों से शून्य थे। कितने ही मदोन्मत्त हाथी धराशायी हो गये थे, जिनकी सूंड़ के अग्रभाग और दांत काट डाले गये थे। बहुतेरे घोड़ों की गर्दनें उड़ा दी गयी थीं और रथों के टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये थे। किन्हीं की आंतें कट गयी थीं, किन्हीं के पांव काट डाले गये थे तथा कुछ दूसरे लोगों की संधियां (अंगों के जोड़) खण्डित हो गयी थीं। कुछ लोग निश्चेष्ट हो गये थे और कुछ पड़े-पड़े छटपटा रहे थे। इनकी संख्या सैकड़ों तथा सहस्रों थी। हमने देखा कि वह युद्धस्थल कायरों के लिये भयवर्धक हो रहा है। मानो पूर्व (प्रलय) काल में पशुओं (जीवों) को पीड़ा देने वाले रुद्रदेव का क्रीडास्थल हो।

क्षुर से कटे हुए हाथियों के शुण्डदण्डों से यह पृथ्वी सर्प युक्त सी जान पड़ती थी। कहीं-कहीं योद्धाओं के मुखकमलों से व्याप्त होने के कारण रणभूमि कमल पुष्पों की मालाओं से अलंकृत सी प्रतीत होती थी। विचित्र पगड़ी, मुकुट, केयूर, अंगद, कुण्डल, स्वर्ण जटित कवच, हाथी-घोड़ों के आभूषण तथा सैकड़ों किरीटों से यत्र-तत्र आच्छादित हुई वह युद्धभूमि नववधू के समान अत्यन्त अद्भुत शोभा से सुशोभित हो रही थी।

अर्जुन ने कायरों का भय बढ़ाने वाली वैतरणी के समान एक अत्यन्त भयंकर रौद्र और घोर रक्त की नदी बहा दी, जो प्राणशून्य योद्धाओं के सैकड़ों निश्चेष्ट शरीरों को बहाये लिये जाती थी। मजा और मेद ही उसकी कीचड़ थे। उसमें रक्त का ही प्रवाह था और रक्त की ही तरंगें उठती थीं। वीरों के मर्म स्थान एवं हड्डियों से व्याप्त हुई वह नदी अगाध जान पड़ती थी। केश ही उस नदी के सेवार और घास थे। योद्धाओं के कटे हुए मस्तक और भुजाएं ही किनारे के छोटे-छोटे प्रस्तर खण्डों का काम देती थीं। टूटी हुई छाती की हड्डियों से वह दुर्गम हो रही थी। विचित्र ध्वज और पताकाएं उसके भीतर पड़ी हुई थीं। छत्र और धनुषरूपी तरंगमालाओं से वह अलंकृत थी। प्राणशून्य प्राणी ही उसके विशल शरीर के अवयव थे, हाथियों की लाशों से वह भरी हुई थी, रथरूपी सैकड़ों नौकाएं उस पर तैर रही थीं, घोड़ों के समूह उसके तट थे, रथ के पहिये, जूए, ईषादण्ड, धुरी और कूबर आदि के कारण वह नदी अत्यन्त दुर्गम जान पड़ती थी। प्रास, खग, शक्ति, फरसे और बाणरूपी सर्पों से युक्त होने के कारण उसके भीतर प्रवेश करना कठिन था। कौए और कंक आदि जन्तु उसके भीतर निवास करने वाले बड़े-बड़े नक ( घडि़याल ) थे। गीदड़रूपी मगरों के निवास से उसकी उग्रता और बढ़ गयी थी। गीध ही उसमें प्रचण्ड एवं बड़े-बड़े ग्राह थे। गीदड़ियोंके चीत्कार से वह नदी बड़ी भयानक प्रतीत होती थी। नाचते हुए प्रेत पिशाचादि सहस्रों भूतों से वह व्याप्त थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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