षट्चत्वारिंशदधिकशततम (146) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
महाभारत: द्रोणपर्व: षट्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 101-122 का हिन्दी अनुवाद
वह दिव्य बाण दिव्यास्त्रों से अभिमन्त्रित होकर इन्द्र के वज्र के समान प्रकाशित हो रहा था। वह सब प्रकार का भार सहन करने में समर्थ और महान था। उसकी गन्ध और मालाओं द्वारा सदा पूजा की जाती थी। कुरुनन्दन महाबाहु अर्जुन ने उस बाण को विधिपूर्वक वज्रास्त्र से संयोजित करके शीघ्र ही गाण्डीव धनुष पर रखा। नरेश्वर! जब अर्जुन अग्नि के समान तेजस्वी उस बाण का संधान करने लगे, उस समय आकाशचारी प्राणियों में महान कोलाहल होने लगा। उस समय वहाँ भगवान श्रीकृष्ण पुनः उतावले होकर बोल उठे- धनंजय! तुम दुरात्मा सिंधुराज का मस्तक शीघ्र काट लो। क्योंकि सूर्य अब पर्वतश्रेष्ठ अस्तांचल पर जाना ही चाहते हैं। जयद्रथ-वध के विषय में तुम मेरी यह बात ध्यान से सुन लो। सिंधुराज के पिता वृद्धक्षत्र इस जगत में विख्यात हैं। उन्होंने दीर्घकाल के पश्चात इस सिंधुराज जयद्रथ को अपने पुत्र के रूप में प्राप्त किया। इसके जन्मकाल में मेघ के समान गम्भीर स्वरवाली अदृश्य आकाशवाणी ने शत्रुसूदन जयद्रथ के विषय में राजा को सम्बोधित करके इस प्रकार कहा- शक्तिशाली नरेन्द्र! तुम्हारा यह पुत्र कुल, शील और संयम आदि सद्गुणों के द्वारा वशों के अनुरूप होगा। इस जगत के क्षत्रियों में यह श्रेष्ठ माना जायगा। शूरवीर सदा इसका सत्कार करेंगे; परंतु अन्त समय में संग्रामभूमि में युद्ध करते समय कोई क्षत्रिय शिरोमणि वीर इसका शत्रु होकर इसके सामने खड़ा हो क्रोधपूर्वक इसका मस्तक काट डालेगा।। यह सुनकर शत्रुओं का दमन करने वाले सिंधुराज वृद्धक्षत्र देर तक कुछ सोचते रहे, फिर पुत्रस्नेह से प्रेरित हो वे समस्त जाति-भाइयों से इस प्रकार बोले- संग्राम में युद्ध तत्पर हो भारी भार वहन करते हुए मेरे इस पुत्र के मस्तक को जो पृथ्वी पर गिरा देगा, उसके सिर के भी सैकड़ों टुकडे़ हो जायेगें, इसमें संशय नहीं है। ऐसा कहकर समय आने पर वृद्धक्षत्र ने जयद्रथ को राज्य-सिंहासन पर स्थापित कर दिया और स्वयं वन में जाकर वे उग्र तपस्या में संलग्न हो गये। कपिध्वज अर्जुन! वे तेजस्वी राजा वृद्धक्षत्र इस समय इस समन्तपंचक क्षेत्र से बाहर घोर एवं दुर्धर्ष तपस्या कर रहे हैं। अतः शत्रुसूदन! तुम अद्भुत कर्म करने वाले किसी भयंकर दिव्यास्त्र के द्वारा इस महासमर में सिंधुराज जयद्रथ का कुण्डलसहित मस्तक काटकर उसे इस वृद्धक्षत्र की गोद में गिरा दो। भारत! तुम भीमसेन के छोटे भाई हो (अतः सब कुछ कर सकते हो)। यदि तुम इसके मस्तक को पृथ्वी पर गिराओगे तो तुम्हारे मस्तक के भी सौ टूकडे़ हो जायेंगे। इसमें संशय नहीं है। कुरुश्रेष्ठ! राजा वृद्धक्षत्र तपस्या में संलग्न हैं। तुम दिव्यास्त्र का आश्रय लेकर ऐसा प्रयत्न करो, जिससे उसे इस बात का पता न चले।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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