महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 145 श्लोक 63-83

पंचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

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महाभारत: द्रोणपर्व: पंचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 63-83 का हिन्दी अनुवाद

तब महारथी कर्ण ने उन तीनों को साठ-साठ बाण मार कर बदला चुकाया। राजन! कर्ण का वह युद्ध अनेक वीरों के साथ हो रहा था। आर्य! वहाँ हमने सूतपुत्र का अद्भुत पराक्रम देखा कि समरभूमि में कुपित होकर उसने अकेले ही तीन-तीन महारथियों को रोक दिया था। उस समय महाबाहु अर्जुन ने रणभूमि में सौ बाणों द्वारा, सूर्यपुत्र कर्ण को उसके सम्पूर्ण मर्मस्थानों में चोट पहुँचायी। प्रतापी सूतपुत्र कर्ण के सारे अंग खून से लथपथ हो गये, तथापि उस वीर ने पचास बाणों से अर्जुन को भी घायल कर दिया। रणक्षेत्र में उसकी यह फुर्ती देखकर अर्जुन सहन न कर सके। तदनन्तर कुन्तीकुमार वीर धनंजय ने कर्ण का धनुष काटकर बड़ी उतावली के साथ उसकी छाती में नौ। बाणों का प्रहार किया। तब प्रतापी सूतपुत्र ने दूसरा धनुष हाथ में लेकर आठ हजार बाणों से पाण्डुपुत्र अर्जुन को ढक दिया।

कर्ण के धनुष से प्रकट हुई उस अनुपम बाण वर्षा को अर्जुन ने बाणों द्वारा उसी प्रकार नष्ट कर दिया, जैसे वायु टिड्डियों के दल को उड़ा देती है। तत्पश्चात अर्जुन ने रणभूमि में दर्शक बने हुए समस्त योद्धाओं को अपने हाथों की फुर्ती दिखाते हुए उस समय कर्ण को भी आच्छादित कर दिया। साथ ही शीघ्रता के अवसर पर शीघ्रता करने वाले अर्जुन ने समरभूमि में सूतपुत्र का वध करने के लिये उसके ऊपर सूर्य के समान तेजस्वी बाण चलाया। उस बाण को वेगपूर्वक आते देख अश्वत्थामा ने तीखे अर्धचन्द्र से बीच में ही काट दिया। कट कर वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। तब शत्रुहन्ता कर्ण ने भी उनके किये हुए प्रहार का बदला चुकाने की इच्छा से अनेक सहस्र बाणों द्वारा पुनः अर्जुन को आच्छादित कर दिया। वे दोनों पुरुषसिंह महारथी दो सांड़ों के समान हंकड़ते हुए अपने सीधे जाने वाले बाणों द्वारा आकाश को आच्छादित करने लगे। वे दोनों एक दूसरे पर चोट करते हुए स्वयं बाण समूहों से ढक कर अदृश्य हो गये थे और एक दूसरे को पुकार कर इस प्रकार कहते थे- ‘कर्ण! तू खड़ा रह, मैं अर्जुन हूँ। ‘अर्जुन! खड़ा रह, मै कर्ण हूं’।

इस प्रकार एक दूसरे को ललकारते और डांटते हुए वे दोनों वीर वाक्यरूपी बाणों द्वारा परस्पर चोट करते हुए समरांगण में शीघ्रतापूर्वक और सुन्दर ढंग से विचित्र युद्ध कर रहे थे। सम्पूर्ण योद्धाओं के उस सम्मेलन में वे दोनों दर्शनीय हो रहे थे। महाराज! समरभूमि में सिद्ध, चारण और नागों द्वारा प्रशंसित होते हुए कर्ण और अर्जुन एक दूसरे के वध की इच्छा से युद्ध कर रहे थे।

राजन! तदनन्तर दुर्योधन ने आपके सैनिकों से कहा ‘वीरों! तुम यत्नपूर्वक राधापुत्र कर्ण की रक्षा करो। वह युद्धस्थल में अर्जुन का वध किये बिना नहीं लौटेगा; क्योंकि उसने मुझसे यही बात कही है’। राजन! इसी समय कर्ण का वह पराक्रम देखकर श्वेत वाहन अर्जुन ने कान तक खींचकर छोड़े हुए चार बाणों द्वारा कर्ण के चारों घोड़ों को प्रेतलोक पहुँचा दिया और एक भल्ल मारकर उसके सारथि को रथ की बैठक से नीचे गिरा दिया। इतना ही नहीं, आपके पुत्र के देखते-देखते उन्होंने कर्ण को बाणों से ढक दिया। घोड़े और सारथी के मारे जाने पर समरांगण में बाणों से ढका हुआ कर्ण बाण-जाल से मोहित हो यह भी नहीं सोच सका कि अब क्या करना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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