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महाभारत: उद्योग पर्व: अष्टचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 37-49 का हिन्दी अनुवाद
- जब शत्रु वीरों का संहार करने वाले राजा विराट सौम्य स्वरूप वाले मत्स्यदेशीय योद्धाओं को साथ लेकर रणभूमि में शत्रु-सेना के भीतर प्रवेश करेंगे, उस समय दुर्योधन युद्ध छेड़ने का परिणाम सोचकर शोक से संतप्त हो उठेगा। (37)
- ‘सौम्य तथा श्रेष्ठ स्वरूप वाले राजा विराट के ज्येष्ठ पुत्र मत्स्यदेशीय महारथी श्वेत को जब दुर्योधन पाण्डवों के हित के लिये कवच धारण किये देखेगा, तब उसे युद्ध का परिणाम सोचकर मन-ही-मन बड़ा कष्ट होगा। (38)
- ‘कौरववंश के प्रमुख वीर शांतनुनंदन साधुशिरोमणि भीष्मजी जब युद्ध में शिखण्डी के हाथ से मार दिये जायंगे, उस समय हमारे शत्रु कौरव कभी हम लोगों का वेग नहीं सह सकेंगे, यह मैं सत्य कहता हूँ, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। (39)
- ‘जब शिखण्डी अपने रथ की रक्षा के साधनों से सम्पन्न हो रथियों को चुन-चुनकर मारता तथा दिव्य अश्वों द्वारा रथ समूहों को रौंदता हुआ रथारूढ़ हो भीष्म पर आक्रमण करेगा, उस समय दुर्योधन को युद्ध छिड़ जाने के कारण बड़ा पश्चाताप होगा। (40)
- ‘जिसे परम बुद्धिमान आचार्य द्रोण ने अस्त्रविद्या के गोपनीय रहस्य की भी शिक्षा दी है, वह धृष्टद्युम्न जब सृंजयवंशी वीरों की सेना के अग्रभाग में प्रकाशित होगा और उसे उस दशा में दुर्योधन देखेगा, तब वह अत्यंत संतप्त हो उठेगा। (41)
- ‘जब शत्रुओं का सामना करने में समर्थ अपरिमित शक्ति-शाली सेनापति धृष्टद्युम्न अपने बाणों द्वारा धृतराष्ट्र पुत्रों को कुचलता हुआ आचार्य द्रोण पर आक्रमण करेगा, उस समय युद्ध का परिणाम सोचकर दुर्योधन बहुत पछतायेगा। (42)
- ‘सोमकवंश का वह प्रमुख वीर धृष्टद्युम्र लज्जाशील, बलवान, बुद्धिमान, मनस्वी तथा वीरोचित शोभा से सम्पन्न है। इसी प्रकार वृष्णिवंश में सिंह के समान पराक्रमी वीरवर सात्यकि जिनके अगुआ हैं, उनके वेग को दूसरे शत्रु कदापि नहीं सह सकते। (43)
- ‘तुम दुर्योधन से यह भी कह देना कि अब संसार में जीवित रहकर तुम राज्य भोगने की इच्छा न करो। हमने युद्ध के लिये अद्वितीय वीर, महान बलवान, निर्भय तथा अस्त्रविद्या में निपुण शिनिपौत्र रथारूढ़ सात्यकि को अपना सहायक चुन लिया है। (44)
- ‘शिनि के पौत्र महारथी सात्यकि चार हाथ लंबा धनुष धारण करते हैं। उनकी छाती चौड़ी और भुजाएं बड़ी हैं। वे अद्वितीय वीर हैं और युद्ध में शत्रुओं को मथ डालते हैं। उन्हें उत्तम अस्त्रों का ज्ञान है। वे निर्भय तथा अस्त्रविद्या के पारंगत विद्वान हैं। (45)
- ‘जब मेरे कहने से शिनिप्रवर शत्रुमर्दन सात्यकि शत्रुओं पर मेघ की भाँति बाणों की झड़ी लगाते हुए मुख्य-मुख्य योद्धाओं को आच्छादित कर देंगे, उस समय दुर्योधन युद्ध का परिणाम सोचकर बहुत पछतायेगा। (46)
- सुदृढ़ धनुष धारण करने वाले दीर्घबाहु महामना सात्यकि जब युद्ध के लिये उत्सुक हो समरभूमि में डट जाते हैं, उस समय जैसे सिंह की गन्ध पाकर गायें इधर-उधर भागने लगती हैं, उसी प्रकार शत्रु युद्ध के मुहाने पर इनके पास आकर तुरंत भाग खडे़ होते हैं। (47)
- ‘विशालबाहु, दृढ़ धनुर्धर, युद्धकुशल और हाथों की फुर्ती दिखाने वाले अस्त्रवेत्ता सात्यकि पर्वतों को विदीर्ण कर सकते हैं और सम्पूर्ण लोकों का संहार करने में समर्थ हैं। वे आकाश में विद्यमान सूर्यदेव की भाँति प्रकाशित होते हैं। (48)
- ‘युद्धनिपुण वीर पुरुष जैसे-जैसे अस्त्रों की उपलब्धि को प्रशंसा के योग्य मानते हैं, उन सबसे तथा समस्त वीरोचित गुणों से वृष्णिसिंह सात्यकि सम्पन्न हैं। उन यदुकुल तिलक को बहुत से उत्तम अस्त्रों का ज्ञान प्राप्त है। उनका वह अस्त्र-योग विचित्र, सूक्ष्म और भली-भाँति अभ्यास में लाया हुआ है। (49)
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