महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 175 श्लोक 19-45

पंचसप्तत्यधिकशततम (175) अध्‍याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्‍यान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: पंचसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-45 का हिन्दी अनुवाद
  • भरतश्रेष्‍ठ! इस प्रकार अनुनय-विनय करती हुई काशिराज की उस कन्या को शाल्व ने उसी प्रकार त्याग दिया, जैसे सर्प पुरानी केंचुल को छोड़ देता है। (19)
  • भरमभूषण! इस तरह नाना प्रकार के वचनों द्वारा बार-बार याचना करने पर भी शाल्वराज ने उस कन्या की बातों पर विश्‍वास नहीं किया। (20)
  • तब काशिराज की ज्येष्‍ठ पुत्री अम्बा क्रोध एवं दु:ख से व्याप्त हो नेत्रों से आंसू बहाती हुई अश्रुगद्गद वाणी में बोली- (21)
  • ‘राजन! यदि मेरी कही बात निश्चित रूप से सत्य हो तो तुम से परित्यक्त होने पर मैं जहां-जहाँ जाऊं, वहां-वहाँ साधु पुरुष मुझे सहारा देने वाले हों।' (22)
  • कुरुनन्दन! राजकन्या अम्बा करुण स्वर से विलाप करती हुई इसी प्रकार कितनी ही बातें कहती रही; परंतु शाल्वराज ने उसे सर्वथा त्याग दिया। (23)
  • शाल्व ने बारंबार उससे कहा- ‘सुश्रोणि! तुम जाओ, चली जाओ, मैं भीष्‍म से डरता हूँ। तुम भीष्‍म के द्वारा ग्रहण की हुई हो।' (24)
  • अदूरदर्शी शाल्व के ऐसा कहने पर अम्बा कुररी की भाँति दीनभाव से रुदन करती हुई उस नगर से निकल गयी। (25)
  • भीष्‍मजी कहते हैं- राजन्! नगर से निकलते समय वह दु:खिनी नारी इस प्रकार चिन्ता करने लगी- ‘इस पृथ्‍वी पर कोई भी ऐसी युवती नहीं होगी, जो मेरे समान भारी सं‍कट में पड़ गयी हो। (26)
  • ‘भाई-बन्धुओं से तो दूर हो ही गयी हूँ। राजा शाल्व ने भी मुझे त्याग दिया हैं। अब मैं हस्तिनापुर में भी नहीं जा सकती। (27)
  • ‘क्योंकि शाल्व के अनुराग को कारण बताकर मैंने भीष्‍म से यहाँ आने की आज्ञा ली थी। अब मैं अपनी ही निन्दा करूं या उस दुर्जय वीर भीष्‍म को कोसूं? (28)
  • ‘अथवा अपने मूढ़ पिता को दोष दूं, जिन्होंने मेरा स्वयंवर किया। मेरे द्वारा सबसे बड़ा दोष यह हुआ है कि पूर्वकाल में जिस समय वह भयंकर युद्ध चल रहा था, उसी समय मैं शाल्व के लिये भीष्‍म के रथ से कूद नहीं पड़ी। (29)
  • ‘उसी का यह फल प्राप्त हुआ है कि मैं एक मूर्ख स्त्री की भाँति भारी आपत्ति में पड़ गयी हूँ। भीष्‍म को धिक्कार है, विवेकशून्य हृदय वाले मेरे मन्दबुद्धि पिता को भी धिक्कार है, जिन्होंने पराक्रम का शुल्क नियत करके मुझे बाजारू स्त्री की भाँति जनसमूह में निकलने की आज्ञा दी। (30-31)
  • ‘मुझे धिक्कार है, शाल्वराज को धिक्कार है और विधाता को भी धिक्कार है, जिनकी दुनीतियों से में इस भारी विपत्ति में फंस गयी हुं। (32)
  • ‘मनुष्‍य सर्वथा वही पाता है जो उसके भाग्य में होता है। मुझ पर जो यह अन्याय हुआ है, उसका मुख्‍य कारण शान्तनुनन्दन भीष्‍म हैं। (33)
  • ‘अत: इस समय तपस्या अथवा युद्ध के द्वारा भीष्‍म से ही बदला लेना मुझे उचित दिखायी देता है; क्योंकि मेरे दु:ख के प्रधान कारण वे ही हैं। (34)
  • ‘परं‍तु कौन ऐसा राजा है जो युद्ध के द्वारा भीष्‍म को परास्त कर सके।’ ऐसा निश्‍चय करके वह नगर से बाहर चली गयी। (35)
  • उसने पुण्‍यशील तपस्वी महात्माओं के आश्रम पर जाकर वहीं वह रात बितायी। उस आश्रम में तपस्वी लोगों ने सब ओर से घेरकर उसकी रक्षा की थी। (36)
  • महाबाहु भरतनन्दन! पवित्र मुस्कान वाली अम्बा ने अपने ऊपर बीता हुआ सारा वृत्तान्त विस्तारपूर्वक उन महात्माओं से बताया। किस प्रकार उसका अपहरण हुआ? कैसे भीष्‍म से छुटकारा मिला? और फिर किस प्रकार शाल्व ने उसे त्याग दिया, ये सारी बातें उसने कह सुनायीं। (37)
  • उस आश्रम में कठोर व्रत का पालन करने वाले शैखावत्य नाम से प्रसिद्ध एक तपोवृद्ध श्रेष्‍ठ ब्राह्मण रहते थे, जो शास्त्र और आरण्‍यक आदि की शिक्षा देने वाले सद्गुरु थे। (38)
  • महातपस्वी शैखावत्य मुनि ने वहाँ सिसकती हुई उस दु:ख शोक परायणा समी साध्‍वी आर्त अबला से कहा- (39)
  • ‘भद्रे! महाभागे! ऐसी दशा में इस आश्रम में निवास करने वाले तप:परायण तपोधन महात्मा तुम्हारा क्या सहयोग कर सकते हैं? (40)
  • राजन! तब अम्बा ने उनसे कहा- ‘भगवान! मुझ पर अनुग्रह कीजिये। मैं संन्यासियों जैसा धर्म पालन करना चाहती हूँ। यहाँ रहकर दुष्‍कर तपस्या करूंगी। (41)
  • ‘मुझ मूढ़ नारी ने अपने पुर्व जन्म के शरीर से जो पापकर्म किये थे, अवश्‍य ही उन्हीं का यह दु:खदायक फल प्राप्त हुआ है। (42)
  • ‘तपस्वी महात्माओ! अब मैं अपने स्वजनों के यहाँ फिर नहीं लौट सकती; क्योंकि राजा शाल्व ने मुझे कोरा उत्तर देकर त्याग दिया है, उससे मेरा सारा जीवन आनन्दशून्य (दु:खमय) हो गया है। (43)
  • ‘निष्‍पाप तापसगण! मैं चाहती हूँ कि आप देवोपम साधुपुरुष मुझे तपस्या का उपदेश दें, मुझ पर आप लोगों की कृपा हो।' (44)
  • तब शैखावत्य मुनि ने लौकिक दृष्‍टान्तो, शास्त्रीय वचनों तथा युक्तियों द्वारा उस कन्या को आश्र्वासन देकर धैर्य बंधाया और ब्राह्मणों के साथ मिलकर उसके कार्य-साधन के लिये प्रयत्न करने की प्रतिज्ञा की। (45)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्‍यानपर्व में शैखावत्य तथा अम्बाका संवादविषयक एक सौ पचहत्तरवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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