द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-12 का हिन्दी अनुवाद
जो ग्रहस्थ-आश्रम में स्थित होकर अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए पंच यज्ञों के अनुष्ठान में तत्पर रहते हैं, वे पृथ्वीतल पर धर्म की स्थापना करते हैं। जो प्रतिदिन सबेरे और शाम को विधिवत संध्योपासना करते हैं, वे वेदमयी नौका का सहारा लेकर इस संसार-समुद्र से स्वयं भी तर जाते हैं और दूसरों को भी तार देते हैं। जो ब्राह्मण सबको पवित्र बनाने वाली वेदमाता गायत्री देवी का जप करता है, वह समुद्रपर्यन्त [पृथ्वी]] का दान लेने पर भी प्रति ग्रह से दुखी नहीं होता। तथा सूर्य आदि ग्रहों में से जो उसके लिये अशुभ स्थान में रहकर अनिष्टकारी होते हैं, वे भी गायत्री-जप के प्रभाव से शान्त, शुभ और कल्याणकारी फल देने वाले हो जाते हैं। जहाँ कहीं क्रूर कर्म करने वाले भयंकर विशालकाय पिशाच रहते हैं, वहाँ जाने पर भी वे उस ब्राह्मण का अनिष्ट नहीं कर सकते। वैदिक व्रतों का आचरण करने वाले पुरुष पृथ्वी पर दूसरों को पवित्र करने वाले होते हैं। राजन! चारों वेदों में वह गायत्री श्रेष्ठ है। युधिष्ठिर! जो ब्राह्मण न तो ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं और न वेदाध्ययन करते हैं, जो बुरे फल वाले कर्मों का आश्रय लेते हैं, वे नाम मात्र के ब्राह्मण भी गायत्री के जप से पूज्य हो जाते हैं। फिर जो ब्राह्मण प्रात:- सांय दोनों समय संध्या-वंदन करते हैं, उनके लिये तो कहना ही क्या? प्रजापति मुनि का कहना है कि- ‘शील, स्वाध्याय, दान, शौच कोमलता और सरलता- ये सद्गुण ब्राह्मण के लिये वेद से भी बढ़कर हैं।’ जो ब्राह्मण ‘भूर्भुव: स्व:’ इन व्याहृतियों के साथ गायत्री का जप करता है, वेद के स्वाध्याय में संलग्न रहता है और अपनी ही स्त्री से प्रेम करता है, वही जितेन्द्रीय, वही विद्वान और वही इस भूमण्डल का देवता है। पुरुषसिंह! जो श्रेष्ठ ब्राह्मण प्रतिदिन संध्योपासन करते हैं, वे नि:संदेह ब्रह्मलोक को प्राप्त होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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