एकविंश (21) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: एकविंश अध्याय: श्लोक 17-26 का हिन्दी अनुवाद
वाणी दो प्रकार की होती है- एक घोष युक्त (स्पष्ट सुनायी देने वाली) और दूसरी घोष रहित, जो सदा सभी अवस्थाओं में विद्यमान रहती है। इन दोनों में घोषयुक्त वाणी की अपेक्षा घोष रहित ही श्रेष्ठतम है। (क्योंकि घोषयुक्त वाणी को प्राणशक्ति की अपेक्षा रहती है और घोषरहित उसकी अपेक्षा के बिना भी स्वभावत: उच्चरित होती रहती है)। शुचिस्मिते! घोषयुक्त (वैदिक) वाणी भी उत्तम गुणों से सुशोभित होती है। वह दूध देने वाली गाय की भाँति मनुष्यों के लिये सदा उत्तम रस झरती एवं मनोवांछित पदार्थ उत्पन्न करती है और ब्रह्म का प्रतिपादन करने वाली उपनिषद वाणी (शाश्वत ब्रह्म) का बोध करने वाली है। इस प्रकार वाणीरूपी गौ दिव्य और अदिव्य प्रभाव से युक्त है। दोनों ही सूक्ष्म हैं और अभीष्ट पदार्थ का प्रस्रव करने वाली हैं। इन दोनों में क्या अन्तर है, इसको स्वयं देखो। ब्राह्मणी ने पूछा- नाथ! जब वाक्य उत्पन्न नहीं हुए थे, उस समय कुछ कहने की इच्छा से प्रेरित की हुई सरस्वती देवी ने पहले क्या कहा था? ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! वह वाक् प्राण के द्वारा शरीर में प्रकट होती है, फिर प्राण से अपान भाव को प्राप्त होती है। तत्पश्चात उदान स्वरूप होकर शरीर को छोड़कर व्यान रूप से सम्पूर्ण आकाश को व्याप्त कर लेती है। तदनन्तर समान वायु में प्रतिष्ठित होती है। इस प्रकार वाणी ने पहले अपनी उत्पत्ति का प्रकार बताया था।[1] इसलिये स्थावर होने के कारण मन श्रेष्ठ है और जंगम होने के कारण वाग्देवी श्रेष्ठ हैं।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में ब्राह्मण-गीताविषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस श्लोक का सारांश इस प्रकार समझना चाहिये- पहले आत्मा मन को उच्चारण करने के लिये प्रेरित करता है, तब मन जठराग्नि को प्रज्वलित करता है। जठराग्नि के प्रज्वलित होने पर उसके प्रभाव से प्राण वायु अपान वायु से जा मिलता है। उसके बाद वह वायु उदान वायु के प्रभाव से ऊपर चढ़कर मस्तक में टकराता है और फिर व्यान वायु के प्रभाव से कण्ठ, तालु आदि स्थानों में होकर वेग से वर्ण उत्पन्न कराता हुआ वैखरी रूप से मनुष्यों के कान में प्रविष्ट होता है। जब प्राण वायु का वेग निवृत्त हो जाता है, तब वह फिर समान भाव से चलने लगता है।
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